विशारीरवाकर ( अर्थ )–हे रघुरारू ( रघुकुलतिलक रामचंद्र ), [ तुम ] किस दीन के बंधु हुए[ और तुमने किस [ पतित] T तागरा । [ दीनबंधु तथा पतिततारणये ] ठे झूठे विरद कहला कर [ तुम ] तूठे तूठे ( प्रसन्न हुए ) फिरते हो ॥ अभिप्राय यह है कि जिनके आप बंधे हुए, वे वास्तव में दीन और दुखी नहीं थे, पूरा दीन दुखी तो मैं हूँ, तथा जिन को आपने तारा, वे पूर्ण पतित नहीं थे, सच्चा पतित सो में हैं। अतः ऐसे लोगौं के बंधु हो कर दीन-तथा ऐसे लोगौं को तार कर पतिततारण कहलाना, और ऐसे कार्यों पर इन विर से तुष्ट होना तो झूठी प्रशंसा से फूल उटन के समान है । सच तो यह है कि ये विरद आप पर तब फलेंजब आप मुझ मढ़ा दीन के बंधु बचें और मुझ घोर पापी को ताएँ ॥ जब जय वे सृषि कीजिये, तर्ष त .सय पुधि जाँदि । ऑखिड ऑविख लगी रेहैं, आँखें लागति नहि ॥ ६२ ॥ वे =वे नाश्क ॥ सुधि कीजिये स्मरण किए जाते हैं ॥ सुधि= चेतनाएँ ॥ ( अवतरण )—वियोगिनी नायिका अपनी दशा सखी से कहती है। ( अर्थ ) जय जब वे [ नायक ] स्मरण किए जाते हैं, तब तब सब चेतनाएँ जाती रहती हैं । [ उनकी ] आँखों [ के ध्यान ] में [ मेरे हृदय की ] औनें लगी रह जाती हैं। [ और ] आंखें नहीं लगत" ( नींद नहींआती )॥ यह विरही नायक का वचन स्वगत अथवा अपने अंतरंग सख से भी हो सकता है ॥ -08 कौन सुनेकास कहीं, सुरति बिसारी नाह । बदायदी ज़्यौ लेत हैं ऐ बदरा बदराह ॥ ६३ ॥ बदाबदी= कह बद कर, खुख मखुल्ला ॥ बदाह—यह फ़ारसी का समस्त पद है । इसका अर्थ कुमारी गामी, दुर्भुत , गदमआशरा है। यहाँ इसका अर्थ डाकू है । ( घबतरण )—प्रोषित पतिका नायिका का वचन सखी से- ( अर्थ ) [ हे सस्त्री, ] नाह ( नाथ, प्राणनाथ ) ने [ तो अपनी थाती अर्थात् मेरे प्राण ] की सुरति ( स्मृति ) विस्त कर दी, [ और ] ये बदराह बालूल बाबदी [ बेहद ] प्राण [ लटे] लेते हैं । [ ऐसी दशा में उस थाती को बचाने के लिए में ] किसे पुकारें [ और उसका स्वामी तो यहाँ है ही नहींअतएव मेरी पुकार ] कौन सुने ॥ --83-- मैं हो जान्यौ, लोइन जुरत बाड़िहै जोति । को हो जान’ दीटि’ कीं दीटि किरकिटी होति ॥ ६५ ॥ किरकिटी किरकरीजो आँख में पड़ कर पीड़ा देती है । • त सनै (२ )। २. रहै (१)। वे जिग (४ ) ४. ये (४)।५. डीतुि (२ )1 ई. करण्टी (५)।
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