पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/७६

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बिहारी-रत्नाकर

बिहारीराकर ( अवतरण ) -पूर्वानुर।ग में नायक अथवा नायिका का वचन स्वगत अथवा सखा या सखी से ( अर्थ )मैंने [ तो ] जाना था कि गाँवों के मिलने से ( दो और दो चार हो जाने से ) ज्योति बढ़ेगी ( प्रसन्नता होगी )। [ यह ] कौन जानता था [ कि ] दृष्टि के निमित्त दृष्टि किरकिटी हो जाती है ( अर्थात् मैं ने तो समझा था कि उसके देखने से आनंद होगा, पर आंख से आंख लग जाने से अब तो दुःख से आंसू बहा करता है, जैसे किर- किटी पड़ जाने से आंखों से पानी बहता है )॥ गहकि, गाँछ औरै गहे, रहे अधकहे बैन । देखि खिसाँ हैं fपेय-नयन किए रिसर्ण हैं नैन ॥ ६५ ॥ गहकि = उमग कर ॥ गाँड ( ग्रास ) = पकड़ । किसी की योर से, उसके अपराध के कारण, चित्त में पड़ी हुई आँट ॥ खि* = अपराध से संकुचित ॥ रिसैं।” ( रोषोन्मुख )=रिसाए हुए से ॥ ( अवतरण )--नायक प्रातःकाल नायिका के घर आया। नायिका पहिले तो उमंग के साथ अपनी प्रेमकहानी कहने लगीकिंतु शीघ्र ही नायक के नेत्र खिसियाए हुए देख कर, और उनसे उसका रात को अन्य स्त्री के यहाँ रहना निश्चित कर के, उसने आँखें चढ़ा लीं । इसी लिए दूसरा ही भाव उदय हो जाने के कारण उस के वचन अध कहे ही रह गए । सखीवचन सखी से ( अर्थ ) [ नायिका के ] वचन उग कर , और ही गाँस से गढ़े हुए, अधकहे [ ही ]रह गए ।[ उसने] प्रियतम के नयन खिसैं।हें देख कर [ अपने ] नयन रिसोंहें कर लिए 6/2 में तासा केवा कचयौ, तू जिन इन्हें पत्पाइ । लगालगी करि लोइन उर मैं लाई लाइ ॥ ६६ ॥ कैवा= के बार ॥ जिन = गत ॥ पस्याइ = विश्वास कर ॥ लगालगी = लगाव-बझाव, मेलजोल ॥ लाइड लाग, घर में चोरी के पहुंचने की घात 1 और टीकाकारों ने इसका अर्थ अग्नि किया है । पर यहाँ 'पत्पाद’ तथा ‘लगालगी’ शब्दों पर ध्यान देने से इसका अर्थ लाग ही करना उचित प्रतीत होता है । ( अवतरण )-पूर्वानुराग में विकल नायिका से सखी कहती है- ( अर्थ )ों ने तुझसे के बार कहा [ कि ] तू इन [ लोचनों ] का विश्वास मत कर ( यह विश्वास मत कर कि ये नयन मेरे अंग हैं, किसी से मिल कर मुझे हानि न पहुँचा चेगे ), [ पर तूने नहीं मानाऔर इनको नायक से मिलने जुलने दिया, जिसका परिणाम अंत को यह हुआ कि 1 लोचन ने [ उस चितचोर से ] लगालगी ( मिलाप ) कर के [ तेरे] उर में [ उसके पैठने के लिए 1 लाइ ( लाग ) लगा दी [ जिससे तेरे नित्त की चोरी हो गई ]। -8 १२ बयन( ) ।