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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/७७

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बिहारी-रत्नाकर

३४ बिहारीरवाकर बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे हैं न । हरिनी के नैना हैं, हरि, नीके ए नैन ॥ ६७ ॥ ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका के नेत्रों की प्रशंसा करती है ( अर्थ )--हे हरि, ये नयन ( इस नायिका के नयन ) [ तो ] हरिणी के नयनों से [ भी ] अच्छे हैं । [ इन्होंने तो ] मदन के बाणों को [ भी ] बरबस जीत लिया है । मैंने [ तो ] ऐसे [ नयन कभी ] नहीं देखे : थोड़े ” ही गुन रीझतेबिसराई वह बानि । तुम, काह, मन भए आजकालिह के दानि ॥ ६८ ॥ ( अवतरण )-वि, इस दोहे में, श्रीकृष्ण चंद्र को अपने पर न रीझने का उलाह न देता हुआ, यही चातुरी से, आपने समय के दानियाँ की अण प्राह देता तथा अपना गुणधिक्य व्यंजित करता ६ ( अर्थ )—हे , [ पहिले तो तुम ] थोड़े ही गुण पर रीझ जाते थे, [ पर अब तुमने ] वह बान प्रति ) विसरा दी ( भुला दी ), मानो तुम [ परम उदार हो कर ] भी आजकल के [ कृपण ] दानी हो गए हो ॥ ‘थोरे वी गुन झते’ तथा भए प्राजकालिट्टे के नि’, इन खंडवाक् से ड्यंजित होता है कि पहिले तो तुम थोड़े ही गुण पर रीझ जाते थे, पर अब यद्यपि मुझे बहुत गुण है, तथापि उस पर तुम नहीं रहते, जैसे कि आजकल के दानी कितना ही गुण हो पर उसका आादर नहीं करते ॥

अंगअंगनग जगमगत दीपसिखा सी देह । दिया बढ़ाएँहूँ रहै बड़ौ उडंया गेह ॥ ६९ ॥

यढ़ापे -बुझाने पर । दीपक बढ़ाना दीपक बुझाने के अर्थ में शिष्ट प्रयोग है । ( अवतरण )—सखी नायक से नायिका की छवि की प्रशंसा करती है। ( अर्थ ) [ उसके ] अंग अंग के [ आभूषणों के ] नग [ उसकी ] दीपसिखा सी देश से जगमगारी हैं । [ अतः ] दीपक बुझा देने पर भी घर में बड़ा उजाला ( प्रकाश ) रहता है । । जिस घर गें बहुत से दर्पण लगे रहते हैं, उसमें एक ही दीपक रखने से, सब दर्पण मैं उसका प्रतिबिंब पढ़ने के कारण, बहुत प्रfाश हो जाता है ।

कुटी न सिडता की झलक, झलयौ जोब अंग । दीपति देह दुह मिलि दिपंति ताफतारंग ॥ ७० : दीपति ( दीप्ति ) = चम, झलक। यह पद ‘दिपति’ क्रिया का कर्ता है ॥ देह= देह में ॥ दुहलु =दोन १ से २ ), ये (४ )। २. सेंग जगति (१ )। ३. उजारी (२, ५)। ४. की (५)।५. होत (५ )।