विक्रवार ३ ( अवतरण ) -इस दोहे में कवि जा जयशाह की युद्धवीरता तथा दानवीरता दोनों की शरद करती हैं ( मर्थ )-जयशाह का मुख देख कर लाखच की सेना रणभूमि में नहीं रहती ( नहीं ठहरती, अर्थात् भाग जाती है ), [ और जयशाह से ] जाँच कर ( माँग कर ) [ पंडितों और गुणियों की कौन कहे, ] सूख भी लाखों [ रुपयों ] का दान ले कर चलता है ( घर लौटता है ) ॥ दियौ, ठ ससि चढ़ाइ लै आछी भाँति आएरि । जधे मुख चाहेतु लियौ, ताके दुखहैिं न केरि ॥ ८१ ॥ थाछी भाँति = अच्छी रीति से, प्रसव्रतापूर्वक ॥ अपरि= अंगीकार कर के ॥ ( अवतरण )किसी विपत्तिपस्त को दुखी देख कर कोई समझाता है- ( अर्थ )[ ईश्वर ने जो दुःख अथवा सुख तुझको ] दिया है, उसे अच्छी भाँति अंगीकार कर के, सीस चढ़ा ले ( सिर माथों पर धर )। जिससे [ तू] सुख लेना चाहता है, उसके [ दिए हुए ] दुःख को फेर मत ( अस्वीकृत मत कर ) ॥ - -93 तरिवनकनऊ कपोलदुति विधे बीच हीं बिकान । लाल लाल चमकठिं चुन चौका-ची-समान ॥ ८२ ॥ तरियम = तरौना, ताठक, तालपर्ण ॥ चौका—आगे के चार दाँतों को चौका कहते हैं ॥ चीन्द्र ( चिढ ) निशान ॥ ( अवतरण )—अम्बसंभोग-विता नायिका, नायक के पास से लौट कर आई हुई दूती के कपाक पर दाँताँ का चित्र देख कर, चातुरी से, व्यंग्यवचन-द्वारा, कहती है कि ये तरौन की चुस्कियाँ दाँत के चित्र के समान चमक रही हैं, वास्तव में ये दाँत के चिह्न नहीं हैं। जो कहो कि तरौने तो हैं ही नहीं, फिर ये खुशियाँ कहाँ से , तो इसका समाधान यह है कि तरौन का सोना तो बीच बीच में से सुनहले कपोलाँ की चमक में समा गया है, अतः केवल चुस्कियाँ की देख पड़ती हैं। यह दोहा लक्षिता नायिका से सखी का व्यंग्यवचन भी हो सकता है ( अर्थ )ई तेरे ]तरौने का सोना [ तो सुनहले ] कपोल की युति में बीच बीच ही ले बिक गया ( लुप्त हो गया है ) । [ पर तने में जड़ी हुई 1 युन्नियाँ दाँतों के चित्र के समान लाल लाल चमक रही हैं । मोहि दयौ, मे भयौ, रहतु छ मिलि जिय साथ। सो मठ बाँधि न सैपि, पिय, सौतिम हाथ ॥ ८३ १ . जापे चाहत सुख लहे (४ ) । २. चाहै (२ )। ३० लयो ( ५ ) । ४. बिच बिच हीर ( ५ )। ५. चिन्ह (२, ५ )।
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