पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/९२

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बिहारी-रत्नाकर

बिहारीरसाकर का होता है ॥ भाल ( मन )= बान अथवा भाले का फल ॥ सुरक-भाल—यह भी खौरि-पनिच का भाँति समस्त पद है । इसका अर्थ ‘सुरक है भाल जिसमें ऐसा होता है । यह पद तिलक-सर' का विशेषण है ॥ भरि तानि=भरपूर तान कर ॥ ( अवतरण ) नायिका के तेवर चढ़ाने पर नायक रीझ कर स्वगत कहता है ( अर्थ )-खौर-रूपी पनिच वाले भृकुटीधनुष को भरपूर तान कर कामदेवरूपी बधिक, विना किसी रोक टोक के माने, सुरक-रूपी भाल वाले तिलक-रूपी बाण से तरुण- जनरूपी का शिकार करता है । नीकौ ल सतु लिलार पर टीक जरिछं जराइ। जुबिहेिं बढ़ावतु रबि मनौ ससिमंडल मैं आइ ॥ १०५ ॥ लिलार= ललाट ॥ टीकौ = एक प्रकार का जड़ाऊ, गोल ग्राभूषण, जिसे नि. ललाट पर धारण करती हैं ॥ जरितु जराइ = जड़ाऊ काम से जड़ा हुआ ॥ ( अवतरण )-नायिका के जड़ाऊटीका-युक्त ललाट की शोभा पर रीझ कर नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )[ उसके ] ललाट पर जड़ाऊ काम से जड़ा हुआ टीका [ कैसा ] अच्छा शोभित है, मानो चंद्र-मंडल में आ कर सूर्य [ उसकी ] छवि बढ़ा रहा है । सूर्य के आगे चंद्रमा की छवि क्षीण पड़ जाती है । अतएव यहाँ यह आश्चर्य की बात है कि उसके मुख-रूपी चंद्र के मंडल में आ कर जड़ाऊटीका-रूपी सूर्य उसकी कांति को और भी बढ़ा देता है । लस सेतसारीअप्यौ, तरल तयौना कान । पचौ मनौ मुरिसलिल रबि-प्रतिबिंदु बिहार ॥ १०६ ॥ तरल = चंचलहिलता हुआ ॥ बिहान प्रातःकाल ॥ ( अवतरण ) -नायिका के ताठक की शोभा लक्षित कराने के ब्याज से सखी नायक से, उसका प सावि के प्रकट कर के, उसका अनुराग ब्यंजित करती है- ( अर्थ ) -[ उसके ] कान में तबौना [ कंप होने के कारण ] हिलता हुआ [ और ] श्वेत सारी से ढपा हुआ [ ऐसा ]लसता ( शोभित होता ) है, मानो प्रातःकाल सूर्य का प्रतिबिंब गंगाजी के [ किंचित् हिलते हुए ] जल में पड़ा है । --- हम हार्टी के के हहा, पाइ पाबौ प्यौर। लेडू क हा अजहूं किए ते-नरेय त्यौरु ॥ १०७ ॥ ड हा—ब्रज में जब कोई अत्यंत दीनता से विनती करता है, तो जिससे बिनती करता है, उसको ‘कहा' १• लिलाट (२, ४, ५ ) । २. जटित ( २, ५ ) । ३ सारी ( १) ! ४. मुरसलिलविच (५)। ५. तरेरो (.१, ४ )।