पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५०
बिहारी-रत्नाकर

५० बिहारी-नाकर अथवा हाहा कह कर संबोधित करता है, जैसे ‘हाहा सखी, मैं तेरे’ पायनि पाँ हैं, हैं मानि जा।’ अIn 'हाह करना' अथवा 'हाहा खाना' बड़ी नम्रतापूर्वक विनती करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है |फ्यौफ प्रियतम ॥ तेहतरेखौ= रोष के कारण तरेरते हुए अर्थात् तर्जन करते हुए ॥ त्यौ=तेवर ॥ ( अवतरण ) सखी मान छुड़ाने के निमित्त नायिका से कहती है ( अर्थ ) -हम [ सस्त्रियाँ तो ] हाहा करते करते हार गईं ( थक गईं ),[ और ]प्यारे को [ तुम्हारे ] पैरों पर पारा ( गिराया )[ भी ]। [ पर तुम नहीं मानती हो, तो ] अब भी ( इस पर भी ) रोष से कड़े तेवर करने से क्या ले रही ( लाभ उठा रही ) हो [ अर्थात् विनती करने और पाँव पड़ने से अधिक तो कोई बात है ही नहीं , जिससे तुम्हारे मान जाने की आशा की जाय । अब तुम क्या यही चाहती हो कि प्रियतम निराश हो कर यहाँ से चला जाय] ॥ सतर भौंहरूस्खे बचन, करति कठिनु मनु नीठि। कहा करें, है जांति हरि हरि हँसहीं डीठि ॥ १०८ ॥ सतर = तर्जनयुत । कड़ी ॥ नीठि= बड़ी कठिनता से ॥ ( अवतरण ) सखी ने नायिका को मान करना सिखलाया है। पर नायक को देख कर नायिका को कुछ हंसी आ जाती है, और वह मान ठान नहीं सकती । अपनी इसी विवशता का वृत्तांत वह सखी से कहती है ( श्रर्थ )[हे सखी, मैं ] नीति ( किसी न किसी प्रकार से ) भृकुटियों को सतर ( धमकाने के भाव से भरी ), चचन को रूखा, [ तथा ] मन को कठिन ( कठोर ) करती हूँ ( बनाती . ) [ पर ] क्या करू, हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) को देख कर [ मेरी ] दृष्टि [ प्रमाधिक्य से ] हसोंहीं हो जाती हैं [ जिससे सब खेल खंडित हो जाता है 1 ॥ -988 वाहि ल लोइन लगे कौन जुबति की जोति। जा तन की छाँहढिग जोन्हें छह सी होति ॥ १०९ ॥ ( अवतरण ) —सखी नायिका की तन-वृति की प्रशंसा नायक से करती है । ( अर्थ ) जिसके तन की परछाई के ढिग ( निकट ) चाँदनी परछाहीं सी लगती है [ अर्थात् जिसके शरीर में ऐसी कांति है कि उसकी छाया में भी प्रकाश है, और उस प्रकाश के आगे उसके समीप की चाँदनी छाया ऐसी प्रतीत होने लगती है , उसे देखने पर किस युवती की ज्योति ( कांति ) लाचन में लग सकती है ( जा सकती है, अच्छी लग सकती है ) ॥ कहा कहाँ वाकी दसा, हैरि प्रान के हैं । बिरहजूवाल जरियो मरिब भेई असीस ॥ ११० ॥ १. जाय (२ )। २० औद्द जोन्ह (४ )। ३० पिय ( १ )। ४. करे (४ )। ५. भयो (४ )।