पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५१
बिहारी-रत्नाकर

बिहारी-रनाकर ५है। ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है (अर्थ )-हे प्राणों के ईश हरि ! [ मैं ]उसकी दशा क्या कहूँ [ वह कहने के योग्य नहीं है ]। विरह ज्वाला में [ उसका ] जलना देख कर [ उसका ] मरना [ मनाना,जो कि समस्त प्राणियों के निमित्त परम शाप है ] आशीर्वाद हो गया है [ क्योंकि मर जाने से वह इस महान् कष्ट से तो छूट जायगी]। जब किसी रोगी की अंतिम दशा आ जाती है, और उसके प्राणाँ को घोर यंत्रणा होने लगती है, तो उसके पर न प्रेभी भी कहने लगते हैं कि अब तो ईश्वर इसे उठा ले, तो ही अच्छा है। उसी यंत्रणा की दशा का वर्णन सखी करती है । प्रान के ईस, यह साभिनाय विशेषण है। इससे सखी व्यजित करती है कि आाप उसके प्राएँ के स्वामी हैं, अतः मैं आपको जताए देती हूं कि अब वे प्राण जाया ही चाहते हैं। यदि आपको अपनी थाती की रक्षा करनी हो, तो शीघ्र यथोचित उपाय कीजिए ॥ _ 5 - जेती संपति कृपन हैं , तेती स्यूमति जोर । बढ़त जात ज्यों ज्य उरज, त्याँ त्याँ होत कठोर ॥ १११ ॥ सूमति = कृपणता ॥ जोर =जोर पर होती है ॥ कठोर ( १ ) कड़े ।(२ ) निर्दय, किसी याचक पर न पसीजने वाले ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है ( अर्थ )कृपण के [ पास ] जितनी संपत्ति [ होती है ], उतनी [ ही उसकी ] स्मता ज़ोर पर [ होती है ]। [ देखो, ] ज्यों ज्यों उरोज बढ़ते जाते हैं, त्यों स्या कठोर होते जाते हैं । A " A ज्य ज्य जोघनजेठ दिन बुच मिति आति अधिकाति। त्य त्य छिन छिन कटिछपा छीन परति नित जाँति ॥ ११२॥ मिति प्रमाण ॥ छपा ( क्षपा )= रात्र ॥ ( अवतरण ) नायिका के शरीर के यौवनागमन की शोभा सखी नायक से कहती है, अथवा नायक उस पर री कर स्वगत कहता है। ( अर्थ )—ज्यों ज्यों गौवनरूपी ज्येष्ठ [ मास ] के कुचरूपी दिन की मिति ( सीमा ) बहुत बढ़ती जाती है, त्यों त्यों कटिरूपी रात्रि क्षण क्षण ( १. क्षण क्षण में ।२. क्षण क्षण कर के ) नित्यप्रति क्षीण पड़ती जाता। है । यौवनागमन में कटि का घटना कवि लोग इसलिये कहते हैं कि वह कुओं के उभार से पतली प्रतीत होने लगती है । । ५ की (४, ५ )। २, श्राधिकार (२ )। ३. छिपा (५ )। ४, जाहू (२)।