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बिहारी सतसई
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बड़े कहावत आप सौं गरुवे गोपीनाथ।
तौ बदिहौं जौ राखिहौ हाथनु लखि मनु हाथ॥२८२॥

अन्वय—गरुवे गोपीनाथ आप सौं बड़े कहावत, बदिहौं तौ जौ हाथनु लखि मनु हाथ राखिहौ।

आपसौं=अपने को। गरुवै=भारी, प्रतिष्ठित। तौ=तब। बदिहौं=यथार्थ में समझूँगी। हाथनु=हाथों को।

प्रतिष्ठित गोपीनाथजी! (भाप) अपनेको बड़े तो कहलवाते हो। किन्तु मैं बदूँगी तब—मैं यथार्थ में प्रतिष्ठित और बड़ा समझूँगी तब—जब (इस नायिका के) हाथों को देखकर (अपना) मन वश में रख लोगे—अपनेको काबू में रख सकोगे।

रही दहेंड़ी ढिग धरी भरी मथनियाँ बारि।
फेरति करि उलटी रई नई बिलोवनिहारि॥२८३॥

अन्वय—दहेंड़ी ढिग धरी रही; मथनियाँ बारि भरी, रई उलटी करि नई बिलोवनिहारि फेरति।

दहेड़ी=दही रखने का बर्तन, कहतरी, मटकी। ढिग=निकट। मथनिया=जिसमें दही रखकर मथा जाता है, माठ, कूँड़ा। रई=जिससे दही मथा जाता है, रही, मथनी। नई बिलोवनिहारि=दही मथनेवाली नवयुवती, नई-नवेली ग्वालिन।

(दही से भरी हुई) मटकी निकट ही रक्खी रह गई और (दही मथनेवाले) भाँड़ में केवल पानी भर दिया। (फिर) मथनी उलटकर (प्रीतम——श्रीकृष्ण—के ध्यान में पगली बनी हुई वह) नई दही मथनेवाली फेर (मथ) रही है—उलटी मथनी से ही भाँड़े के पानी को मथ रही है। (श्रीकृष्ण के प्रेम में बेसुध है)

कोरि जतन कीजै तऊ नागरि नेहु दुरै न।
कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन॥२८४॥

अन्वय—कोरि जतन कीजै तऊ नागरि नेहु न दुरै। नैन नई रुखाई चितु चीकनौ कहैं देत।