पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ च ]

सोहत ओढैं पीत पटु, स्याम सलौनें मात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतप पस्यौ प्रभात ॥
कंजनयनि मंजन किये, बैठी ब्यौरति बार ।
कच अँगुरी विच दीठि दै, चितवति नन्दकुमार ॥
बेसरि-मोती धनि तुही, को बूझै कुल जाति ।
पीबौ करि तिय-अधर को, रस निधरक दिन-राति ॥

अफ़सोस ! केवल सात-आठ दोहों द्वारा सात सौ दोहों का सौष्ठव किसी तरह नहीं दिखाया जा सकता । हाँ, 'स्थालोपुलाक न्याय' से उक्त दोहों द्वारा कवि की विचित्र वर्णन-चातुरी और रुचिर रचना-कौशल का किसी हद तक अनुमान किया जा सकता है ।

अब जरा ध्यान देकर देखिए, अन्यान्य प्रकार के वर्णनों में भी बिहारीलाल ने शृंगार-रस को किस प्रवीणता और सफलता से प्रधानता दी है ।

शिशिर-वर्णन-

तपन-तेज तापन-तपति, तूल-तुलाई माँह ।
सिसिर-सीतु क्यौं हुँ न कटैं, बिनु लपटें तिय नाँह ॥

इसी भाव का एक श्लोक भी है-

 कार्पासकृतकूर्पासशतैरपि न शाम्यति ।
शीतं शातोदरीपीनवक्षोजालिंगनं विना ॥

 पुनच्श्र-- रहि न सकी सब जगत मैं, सिसिर-सीत कैं त्रास ।
गरम भाजि गढ़वै भई, तिय-कुच अचल भवास ॥

वर्षा-वर्णन-

चलति ठिठकति छिनक, भुज प्रीतम-गल डारि ।
चढ़ी अटा देखति घटा, बिज्जु-छटा-सी नारि ॥

होली-वर्णन-

मिजए दोऊ दुहुनु, तउ ठिकि रहे टरै न ।
छबि सौं छिरकत प्रेम-रँग, मरि पिचकारी नैन ।।