राष्ट्रीयता के इस नवीन युम में, जब कि जागृति-जाह्नवी में जनसमुदाय स्नान कर रहा है, यह शृंगार-रस का पचड़ा पाठकों को पसन्द न पड़ेगा; किन्तु कविता की महत्ता तो किसी दशा में अस्वीकार नहीं की जा सकती । शृंगार-रस के कारण कविता की महिमा नहीं घटती । कवि की पहुँच परखिए-रस या भाव तो रुचि पर निर्भर है । बिहारी के एक दोहे पर मनोरंजक प्रश्नोत्तर देखिए-
कियौ सबै जगु काम-बस, जीते जिते अजेइ ।
कुसुम-सरहिं सर-धनुष कर, अगहनु गहन न देइ ॥
कही सीत की प्रबलता,गहि न सके धनु काम ।
तो हेमन्त में चाहिये, कामहीन जगधाम ॥
जग करि दीन्हों स्वामिबस, जीति अजित निज बास ।
धनुष-गहन स्रम देत नहिं, कामहि अगहन दास ।।
बिहारी के नीति-कथन में भी एक विचित्र सरसता झलकती है-
संगति दोषु लगै सबनु, कहे ति साँचे बैन ।
कुटिल बंक ध्रुव-संग ते, कुटिल बंक गति नैन ॥
सोहतु संगु समान सौं, यहै कहै सबु लोगु ।
पान-पीक ओठनु बनैं, काजर नैननु जोगु ।।
जती सम्पत्ति कृपन कैं, तेती सूमति जोर ।
बढ़त जात ज्यौं-ज्यौं उरज, त्यौं-त्यौं होत कठोर ।।
इक भीजैं चहलैं परैं, वृड़ैं बहैं हजार ।
किते न औगुन जग करै, न बै चढ़ती बार ।।
बिहारी की अन्योक्तियों में भी शृंगार का समावेश है । शृंगार-वर्णन में कहीं-कहीं हिन्दी के मुहावरों का प्रयोग बड़े अच्छे ढंग से किया गया है-
अंग अंग नग जगमगत, दीपसिखा-सा देह ।
'दिया बढ़ाएं हु' रहै, बड़ो उज्यागे गेह ॥