पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२१

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जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नाहिं ।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाहिं ॥
करौ कुबत जगु कुटिलता, तजौं न दीनदयाल ।
दुखी होहुगे सरल चित, बसत त्रिभंगीलाल ।
ज्यौं अनेक अधमनु दियौ, मोहूँ दीजै मोषु ।
तो बाँधौ अपनैं गुननु, जौ बाँधैही तोषु ॥

मैं यहाँ तक जितना कुछ कह आया हूँ, उससे यह स्पष्ट प्रकट होता है कि बिहारी की कविता यद्यपि थोड़ी है, तथापि, वह उतनी ही, हिन्दी-साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति है । उसमें शृंगार का प्राधान्य, सन्दर्भ-सौन्दर्य, भाव-सौकुमार्य, रस-माधुर्य, अर्थ-गाम्भीर्य आदि सब कुछ यथेष्ट हैं। जो कोई 'सतसई' पढ़ेगा, वह यही अनुभव करेगा ।

-शिवपूजन सहाय

  • सूर्यपुराधीश राना श्री राधिकारमणप्रसादसिंह जी एम० ए० के सभापतित्व में होनेवाले गत द्वितीय बिहार-प्रान्तीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, बेतिया (चम्पारन ), में पठित लेख का परिवर्द्धित और परिष्कृत रूप ।