पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ज ]

कर समेटि कच भुज उलटि, खएँ सीस-पटु डारि ।
काकौ 'मनु बाँधै' न यह, जूरा बाँधनिहारि ॥
जाल रंध्र-मग अँगनु कौ, कछु उजास सौ पाइ ।
'पीठि दिऐ' जग त्यौं रह्यो, 'डीठि झरोखे लाइ' ॥
'नैन लगे' तिहिं लगनि जनि, छुटै छुटै हूँ प्रान ।।
 काम न आवत एक हूँ, तेरे सौक सयान ॥

बिहारी ने अपनी कविता में पौराणिक कथाओं का उल्लेख भी कहीं-कहीं बड़े अच्छे ढंग से किया है-

रह्यौ ऐचि अंत न लह्यौ, अवधि दुसासन बीरु ।
आली बाढ़तु बिरहु ज्यौं, पंचाली कौ चीरु ॥
या भव-पारावार कौं, उलँघि पार को जाइ ।
तिय-छवि-छायाग्राहिनी, ग्रहै बीच ही आई ।।
बिरह-बिथा-जल परस बिन, बसियतु मो मन-ताल ।
कछु जानत जलथम-बिधि, दुरजोधन लौं लाल ।।
यौं दल काढ़े बलख तैं, तैं जयसाहि भुवाल ।
उदर अघासुर के परैं, ज्यौं हरि गाइ गुवाल ।।
सखि सोहति गोपाल कैं, उर गुंजन की माल ।
बाहिर लमति मनौ पिए, दावानल की ज्वाल ॥

बिहारीलाल की कुछ रचनाएँ बतलाती हैं कि वे शान्त-रस की कविता भी अच्छी कर सकते थे । भक्ति, विनय, दीनता और वैराग्य के भाव कैसे अनूठे हैं । देखिए, शान्त-रस में भी वही स्वाभाविक सरसता-

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ ।
ज्यौं-ज्यौं बूडै स्याम रंग, त्यौं-त्यौं उजल होइ ।।
नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि ।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु, बारक बारनु तारि ।।
जप माला छापैं तिलक, सरै न एकौ कामु ।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचे राँचै रामु ॥