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बिहारी-सतसई
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अन्वय—रसाल-सौरभ छकि मधुर माधवी-गंध सने मधु-अंध झौंर-झौंर ठौर-ठौर झौंरत झँपत।

छकि=तृप्त या मत्त होकर। रसाल=(यहाँ) आम की मँजरी। सौरभ=सुगंध॥ सने=लिप्त होकर माधवी—एक प्रकार की बसन्ती लता। ठौर-ठौर=जगह-जगह, यत्र-तत्र। झँपत=मस्ती में ऊँघते हैं। झौंर=समूह। झौंरत=मँड़राते हैं।

आम की (मंजरी की) सुगन्ध से मस्त होकर, माधवी-लता की मधुर गन्ध से सने (लिप्स) हुए मदांध भौंरों के समूह जगह-जगह झूमते और झपकी लेते (फिरते) हैं—(किसी पुष्प पर गुञ्जार करते हैं, तो किसीपर बैठकर ऊँघने लगते हैं।)

यह बसन्त न खरी अरी गरम न सीतल बातु।
कहि क्यौं प्रगटैं देखियतु पुलकु पसीजे गातु॥५६१॥

अन्वय—यह बसन्त अरी न खरी गरम न सीतल बातु, कहि पसीजे गातु पुलकु प्रगटैं क्यौं देखियतु।

खरी=अत्यन्त। अरी=ऐ सखी। बातु=हवा। कहि=कहो। प्रगटैं=प्रत्यक्ष। पुलकु=रोमांच। पसीजे=पसीने से लथपथ।

यह वसन्त ऋतु है। अरी सखी, न इसमें अत्यन्त गर्मी है और न (अत्यन्त) ठंढी हवा! कहो, फिर तुम्हारे पसीजे हुए—पसीने से लथपथ—शरीर में पुलकें प्रत्यक्ष क्यों दीख पड़ती हैं?

नोट—गर्मी से पसीना निकलता है और सर्दी से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रीतम के साथ तुरत रति-समागम करके आई हुई नायिका में ये दोनों ही चिह्न देखकर सखी परिहास करती है।

फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित-चित भागि।
फूल्यौ देखि पलास-बन समुही समुझि दवागि॥५६२॥

अन्वय—पलास-बन फूल्यौ देखि समुही दवागि समुझि चकित-चित नूतन पथिक फिरि घर कौं भागि चले।