पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२४३

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२२३ सटोक : बेनीपुरी अन्वय-दोऊ दुहुनु रस मिजए तउ ठिकि रहे न टएँ, नैन पिचकारी प्रेम-रंग भरि छबि सौं छिरकत । भिजए-शराबोर कर दिया । ठिकि रहे = डटे रहे । दोनों ने दोनों को रस से शराबोर कर डाला है, तो भी दोनों अड़े खड़े हैं, टलते नहीं। ( मानो फाग खेलने के बाद अब) नैन-रूपी पिचकारी में प्रेम का रंग भरकर सुन्दरता के साथ (परस्पर) छिड़क रहे हैं। गिरै कपि कछु कछु रहै कर पसीजि लपटाइ । लैयौ मुठी गुलाल भरि छुटत मुठी ह जाइ ।। ५५८ ॥ अन्वय-कछु कंपि गिरे, कछु कर पीजि लपटाइ रहै, मुठी गुलाल भरि लैयौ छुटत झुठी 8 जाइ । कपि = काँपना । छुटत = छूटते ही, चलाते ही । झुठी = खाली । कुछ तो (प्रेमावेश में ) हाथ काँपने से गिर पड़ती है, और कुछ हाथ के पसीजने से उसमें लिपटी रह जाती है। मुट्ठी में अबीर भरकर तो लती है, किन्तु चलाते ही ( वह मुट्ठी) झूठी हो जाती है. -नायक की देह पर अबीर पड़ती ही नहीं। ज्यौं-ज्यौं पटु कटकति हठति हमति नचावति नैन । त्यों-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत बनै न ।। ५५९ ।। अन्वय - ज्यों-ज्यों पटु झटकति हठति हसति नैन नचावति त्यों-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत न बने । पटु = अंचल । झटकति = जोर से हिलाती वा फहराती है। हठति = हठ करती है । निपट = अत्यन्त । फगुवा = फाग खेलने के बदले में वस्त्राभूषण या मेवा-मिठाई आदि का पुरस्कार । ज्यों-ज्यों वह (नायिका ) कपड़े (अंचल ) को झटकती है, हठ करती है, हँसती है और आँखों को नचाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त उदार होने पर मी ( इस हाव-माव पर मुग्ध होकर, नायक से ) फगुआ देते नहीं बनता । छकि रसाल-सौरभ सने मधुर माधवी-गंध । ठौर-ठौर झोरत झंपत झौर-झौर मधु-अंध ॥ ५६०॥