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बिहारी-सतसई
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अन्वय—अहि-मयूर मृग-बाघ कहलाने एकत बसत, निदाघ दीरघ दाघ जगतु तपोबन सौ कियौ।

कहलाने=(१) कुम्हलाये हुए, गर्मी से व्याकुल (२) किसलिए। एकत=एकत्र। अहि=सर्प। दीरघ दाघ=कठोर गर्मी। निदाघ=ग्रीष्म।

(परस्पर कट्टर शत्रु होने पर भी) सर्प और मयूर तथा हिरन और बाघ किसलिए (गर्मी से व्याकुल होकर) एकत्र वास करते हैं—एक साथ रहते हैं? ग्रीष्म की कठोर गर्मी ने संसार को तपोवन-सा बना दिया।

नोट—इस दोहे के प्रथम चरण में एक खूबी है। उसमें प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। प्रश्न है—सर्प और मयूर तथा मृग और बाघ किसलिए एकत्र बसते हैं? उत्तर—गर्मी से व्याकुल होकर तपोवन में सभी जीव-जन्तु आपस में स्वाभाविक वैर-भाव भूलकर एक साथ रहते हैं। आचार्य केशवदास ने भी तपोवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है—"केसोदास मृगज बछेरू चूमैं बाघनीन चाटत सुरभि बाघ-बालक-बदन है। सिंहिन की सटा ऐंचे कलभ करिनि कर सिंहन के आसन गयन्द के रहन है॥ फनी के फनन पर नाचत मुदित मोर क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है। बानर फिरत डोरे-डारे अन्ध तापसनि सिव की मसान कैधौं ऋषि को सदन है॥"

बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥५६६॥

अन्वय—अति सघन बन बैठि रही सदन तन माँह पैठि, जेठ की दुपहरी देखि छाँहौं छाँह चाहति।

सघन=घना। सदन=घर। तन=शरीर। छाँहौं=छाया भी।

(छाया या तो) अत्यन्त सघन वन में बैठ रही है (या बस्ती के) घर और (जीव के) शरीर में घुस गई है। (मालूम पड़ता है) जेठ-मास की (झुलसानेवाली) दुपहरी देखकर छाया भी छाया चाहती है।

नोट—जेठ की दुपहरी में सूर्य ठीक सिर के ऊपर (मध्य आकाश में) रहता है। अतः सब चीजों की छाया अत्यन्त छोटी होती है। पेड़ की छाया ठीक उसकी डालियों के नीचे रहती है। घर की छाया घर में ही घुसी रहती