पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२४७

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सटीक : बेनीपुरी
 

है—दीवार से नीचे नहीं उतरती। शरीर की छाया भी नहीं दीख पड़ती—परछाई पैरों के नीचे जाती है, मानो वह भी शरीर में ही घुस गई हो। वाहवा! इस दोहे से बिहारी के प्रकृति-निरीक्षण-नैपुण्य का कैसा उत्कृष्ट परिचय मिलता है!

तिय-तरसौंहैं मन किए करि सरसौंहैं नेह।
धर परसौंहैं ह्वै रहे भर बरसौंहैं मेह॥५६७॥

अन्वय—नेह सरसौंहैं करि मन तिय-तरसौंहैं किए झर बरसौंहैं मेह धर परसौंहैं ह्वै रहे!

तिय-तरसौंहैं=स्त्री पर ललचनेवाले। सरसौंहैं=रसीला, सरस। घर=घरा, पृथ्वी। परसौंहैं=स्पर्श करनेवाले। बरसौंहैं=बरसनेवाले।

(वर्षा ने) प्रेम को सरस बनाकर मन को स्त्री के लिए ललचनेवाला बना दिया—(वर्षा पाते ही प्रेम जग गया और स्त्री के साथ भोग-विलास करने को मन मचल गया) और, झड़ी लगाकर बरसनेवाले मेघ पृथ्वी को स्पर्श करनेवाले हो गये—(मेघ इतने नीचे आकर बरसते हैं, मानो वे पृथ्वी का आलिंगन कर रहे हों)।

पावस निसि-अँधियार मैं रह्यौ भेदु नहिं आनु।
राति-द्यौस जान्यौ परतु लखि चकई-चकवानु॥५६८॥

अन्वय—पावस निसि-अँधियार मैं आनु भेदु नहिं रह्यौ चकई-चकवानु लखि राति-द्यौस जान्यौ परतु।

पावस=वर्षा ऋतु। निसि=रात। भेदु=फर्क, अन्तर। आन=अन्य, दूसरा। द्यौस=दिन।

पावस और रात के अन्धकार में अन्य भेद नहीं रहा—(पावस का अंधकार और रात का अंधकार एक समान हो रहा है), चकई और चकवे को देखकर ही रात-दिन जान पड़ते हैं—(जब चकवे और चकई को लोग एक साथ देखते हैं, तब समझते हैं कि दिन है; फिर जब उन्हें बिछुड़ा देखते हैं, तब समझते हैं कि रात है)।