अन्वय-नित प्रति एकत ही रहत, बैस बरन मन एक जुगल किसोर लखि लोचन-जुगल अनेक चहियत ।
एकत = एकत्र, एक साथ । बैस = वयस, अवस्था । बरन = वर्ण, रूप-रंग । जुगल-किसोर = दोनों युवक-युवती, किशोर-किशोरी की जोड़ी । लखि चहियत = देखने के लिए चाहिए । लोचन-जुगल = आँखों के जोड़े ।
दोनों सदा एक साथ ही रहते हैं । (क्यों न हो ? दोनों की) अवस्था, रूप-रंग और मन ( मी तो) एक-से हैं । इस युगलमूर्ति (राधाकृष्ण ) को देखने के लिए तो आँखों के अनेक जोड़े चाहिए-दो आँखों से देखने पर तृप्ति हो ही नहीं सकती ।
नोट-पद्माकर ने इस जुगल जोड़ी के परस्पर दर्शन-प्रेम पर कहा है-
सघन रमनि-राधिका-मोर ।
श्रीराधा-मुखचंद को गोकुलचंद चकोर ॥
मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु यौं राजत नँदनंद ।
मनु ससि-सेखर की अकस किय सेखर सतचंद ॥१०॥
अन्वय-मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु नँदनंद यों राजत, मनु ससि-सेखर की अकम सेखर सतचंद किय ॥१०॥
मोर-मुकुट = मोर के पंख का बना मुकुट । चन्द्रिकनु = मोर की पूँछ के पर में दूज के चाँद-सा चमकीला चिह्न ; मोर के पंख की आँख । नँदनंद = नंद के पुत्र, कृष्ण । मनु = मानों । ससिसेखर = जिसके सिर पर चन्द्रमा हो, चन्द्रशेखर, शिव । अकस = ईष्या, डाह । सेखर = सिर । सत = शत, सौ (यहाँ अनेकवाची) ।
मोर-मुकुट की चन्द्रिकाओं से (श्रीकृष्ण ) ऐसे शोभते हैं, मानों शिवजी की ईर्ष्या से उन्होंने अपने सिर पर अनेक चन्द्रमा धारण किये हों ।
नाचि अचानक ही उठे बिनु पावस बन मोर ।
जानति हौं, नन्दित करी यहि दिसि नंद-किसोर ॥११॥
अन्वय-बिनु पावस अचानक ही बन मोर नाचि उठे, जानति हौ यहि दिसि नंद-किसोर नन्दित करो॥११॥