बिहारीबिहार । . ॐ भाग काके पुनि जागे । काके बिरहदवाागदन्ददहकानादन गौने । सुकबि न इनको होइ कौन लोयन लखि लौने ॥ ४०० ॥... .।
- लागत कुटिलकटाच्छंसर क्यौं न होय बेहाल ।
लगत जु हिये दुसार करि तऊ रहत नटसाल ।। ३३० ॥ तऊ रहत नटसाल हलाहल अँगनि पसारत । जारत आरंत करत तऊ जिय स नहिँ मारत ॥ पीर बढ़त अरु धीर जात पुनि हिय अनुरागत । इन्द्रजाल जनु भरे सुकबि ये दृगसर लागत ॥ ४०१ ॥ ... नागरि बिबिध बिलास तजि बसी अँबेलिनि महि । मूढो मैं गनिबी कि तू हूठौ दै अठिलाहि ॥ ३३१॥ हूठो दै अठिलाहि रही है तुअ मन मुढो । पुनि पछितैहै जवै उभरि है। । नेह निगूढ़ो ॥ अज हूँ हठ की गढ़नि कठिन तजि है गुनगरि । सुकवि । आँवारिन माहिँ रूस बैठी क्यों नागरि ॥ ४०२ ॥ ..
- अधीन न होय ( कौन गरीव निवाजिबो ) किस गली में अब अनुग्रह कौज़ियेगा ॥ शेषस्पष्ट ॥ (रलयो
। रभेदः) परन्तु इस अर्थ में गरीब पदं की क्लिष्ट कल्पना है। इस लिये यह सौधा अर्थ है कि नेत्र का
- लावण्य देख इन के आधीन कौन न हो पर नही जानते रतिराजं किधर प्रसन्न हुआ है, और इसे कौन
से गरीब को निबाजना है। (वयंवर समयं नायिका को देख नायक का संकल्प विकल्प है कि देखें यह
- किसे मिलती है ) हरिप्रसाद ने इस पर यो आर्या की है ॥ “सुन्दरनयनप्रान्तैरेतैदृ ष्ट्ाद्य सुमुखि दीने
त्वम् ॥ कस्मिन् कृपां करिष्यसि कस्मै तुष्टोऽस्ति रतिराजः ॥ ॐ ॐ दुसार तौर पार हो ज़ाता है और
- नटसल शरीर के भीतर ही रहजाता है निकालने के समय अँतड़ी घींचता है।
- यह दोहा हरिप्रसाद के 'ग्रन्थ में नहीं है ।।
. : मानवतौ सखौ को उक्ति । तू नागरी हो के बिबिधविलास छोड़ के (रुस) आँवारियों में घुस
- वैठौ। तिस पर भी तू हठ करती है इस लिये मैं तुझे मूर्ख समझती हूँ।“गनिबौ’ उत्तम ब्रजभाषा नहीं
है पर बिहारीजी ने ऐसा प्रयोग कई ठिकाने किया है। गोस्वामि तुलसीदास ज़ौको भी ऐसा प्रयोग ।
- अच्छा लगा था जैसे वालकाण्ड दो० ३३६ छन्द “परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानबौ ॥
- तुलसौ मुसौल सनेह लखि निज किङ्करी करि मानवी । परन्तु विहां जीने यहां स्त्री लिङ्ग में प्रयोग
किया है और रामायण में पुलिङ्ग है । “गैवेलिन्' भी शुद्ध ब्रजभाषा नहीं है ।:: : :