- विहारीविहार ।। -
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जालरन्ध्रमग अॅगनि को कछु उजास सो पाई। पीठ दिये जग साँ रहे दीठ झरोखा लाइ ॥ ३२६ ॥
- दीट झरोखा लाई रहे मग ही मैं ठाढ़े । को आवत को जात लखत
कछु नहिँ रसवाड़े ॥ कम्पित अंग अंग भये तऊ छिति स न ठरत पग । सुकवि जके से नैन जुरे जमि जालन्धमग ।। ३६७ । जद्यपि सुन्दर सुघट पुनि सगुनों दीपक देह । । तऊ प्रकास करै तितौ भरिये जितौ सनेह ॥ ३२७ ॥ । भरिये जितो सनेह तितो ही करै प्रकासा । नेह सुघट पै होइ जाति मा-
- नहुँ दुतिनासा ॥ विना नेह पुनि अन्धकार मैं जात मनहूँ हँपि । सुकवि
- चाह विनु भलो न लागै सुन्दर जद्यपि ॥ ३६८ ॥
- सनि कज्जल चख झखलगन उपज्यौ सुदिन सनेह ।।
क्यों न नृपति व्है भोगवै लहि सुदेस सब देह ॥ ३२८ ॥ लाह सुदेस सब देह नृपति है क्यों नंहिँ भोगे । जिय धन सहज कला- धर पस्यो मदन बुध जोगें । मङ्गल भागनिधान अहें गुन घने लये गनि ।
- रस सिङ्गारहि सुकवि वढ़ावत दृग कजले सनि । ३६६ ।।
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- लखि लोंने यननि के को इन होइ न आज ।।
कौन गरीव निवाजिव कित तूट्यौ तिराज ॥ ३२९ ॥ कितं तुट्यो रतिराज साज सव सजि सुख पागे । किहिं सुहाग संगवगे
- यह दोहा देवकीनन्दन टीका में नहीं है । हरिप्रमाद ने इस पर यह आर्या दिग्वो है ।। * . ।।
में निरञ्जनमय अपने अम्मो मोनो ऽत्र शुभदिने जातः । स्नेहो नृपः कथं नो अब्बा भुश्यात् सुदेशब्युः ॥ * | ** तोयननि के नैन अखि) म्होउन का लाइव टेछ के को शाज इन रोर न ) आज की इन - - -