पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१८४

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विहारविहार ।। अतिसे हरसाने ॥ जोवन को उत जोर करत सूखे न हो सो । अनी उनी में सव वात सुकवि है मोहि भरोसो ॥ ४१० ॥ । ल्याई लाल विलोकिये जिय की जीवनमूलि । रही भन के कौन मैं सोनजुही सी फूलि ॥ ३४० ॥ सानजुही सी फूलि रही अति प्रेमडहडही । संजीवनी की बेलसरिस जगमगत लहलही । लसत केस जनु भृङ्ग रहे चहुँदिस मॅड़राई । सुकवि स्याम चलि देखहु मै स्यामा क ल्याई ॥ ४११ ॥

  • नहिँ हरि ल हियरे धरौ नहिँ हर ल अरधङ्ग ।

। एकत ही करि राखिये अङ्ग अङ्ग प्रति अङ्ग ॥ ३४१ ॥ अङ्ग अङ्ग प्रति अङ्ग अङ्ग मिाल एकै हुँ । मन मन स मति मति । सो जिय जिय साँ मिलि जैहें ॥ हरि राधा इक निरखि सवै हरसैहँ सुख

  • लाहि । सुकाव ऐसि ही करो रहे ज्यों भेद कछु नहिँ ॥ ४१२ ॥
  • रही पैज कीनी जु मैं दीनी तुम्हें मिलाय ।

राखो चम्पकमाल सी लाल गरे लपटाय ॥ ३४२ ॥ लाल गरे लपटाय अङ्ग अंग माहिँ रमाओ । नैनन हूँ छवि राखि पुलाकि आनंद उमगाओ ॥ वैनन राधा नाम कहो हियरो तजि गिरही । सदा

  • संजेगी सुकवि रहे कव हैं जिन विरही ॥ ४१३ ॥
  • ४ दो हरिप्रभाट के अन्य में नहीं है।

| ** : माि हैं ३ गिरी = गोठवाला ॥