पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विहारविहार । ।

  • चावरे ॥ फिरि जैहै तो बन्यो बनायो सुख जैहै नसि । अब हूँ सुकबि हँसाय

अाय उर लाय धाय हँसि ॥ ४३६ ॥ मान करत बरजत न ह उलट दिवांवत सौंहूँ। करी रिसाँही जंहिँ गी* सहज हँसौहीं भौंह ॥ ३६४ ॥ | सहज हँसाँही भौंह रिस ही होति न तेरी । भरी ठठोली बोलन व्हैहै। नाहिँ करेरी ॥ नैन सलोने मुलुक भरे नहिँ सहैं अनख भर । सुकवि तमासा करत कहा सुन तू न मान कर ॥ ४३७ ॥ जो चाहे चटक न घटै मैलो होय न मित्त । ... • रजराजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त ॥ ३६५ ॥

  • नेहचीकने चित्त नाहिँ जोरावरि कीजै। रागरङ्गरस लाई अधिक आनंद
  • नित लीजै ॥ कलहझोक फटिजात प्रेम साँ बाँधि निबाहै। चीन्ह चीन पट

चित्त सुकवि चोखो जो चाहे ॥ ४३८ ॥ . . . . . . . . ।

  • सहँ हू चाह्यौ न हूँ केती द्याई सहि ।।

एहो क्यों बैठी किये ऐंठी ग्वैठी भौंह ॥ ३६६ ॥ : | ऍठी बैंठी भौंह किये अज हूँ है वैठी । कर जोरे उन तऊ हहा हिय । दया न पैठी ॥ छन ही मै पछतैहै करिके सीस निचौहैं। सुकबि पाँय परि है। दुतिन के सखियन सॉहैं ॥ ४३६ ॥ . ' '

  • *काकूक्ति ॥ लबूलाल तथा और भी कई टीकाकार ऐसे ठिकाने ‘काकोक्ति' लिखते हैं। यह संस्कृत न

जानने का फल है। किसी कपड़े में तेल देके रङ्ग चढ़ाया जाता है सो मित्र का चित्त वैसा ही है।

  • इस भाव पर कुण्डलिया है। चीन के कपड़े की चिरकाल से प्रशंसा है जैसे शाकुन्तल में कालिदास ने

में कहा है “चौनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य” लोक में भी प्रसिद्ध है अंगिया. मोरी रौ मसकि गई चीन' । * यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रन्थ में और देवकीनन्दन टीका में नहीं है ॥ . . . . । । । ।