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बिहारी बिहार ।

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१७६ बिहारीविहार। गढ़रचना बरुनी अलक चितवन भाँह कमान ।

  • आधु बँकाई ही बढ़े तरुनि तुरंगम तान ॥ ५९६ ॥ तरुनि तुरङ्गम तान पैंतरा असि सुठि लागै । कड़ाबीन की मार पाग पुनि जिय अनुरागै ॥ प्रनय कलह के बोल परन अरु -गति आनँदमढ़ । बाँकी बाँकी सुकवि भली लागत अति रसगढ़ ॥ ६६५ ॥

तन्त्री नाद कबितरस सरसराग रतिरंग। | अनबड़े बड़े तरे जे बुड़े सबअंग ॥ ५९७ ॥ जे बुड़े सबअङ्ग अहँ तेई अनबूड़े। इन कौं जानत नाहिँ सोई हैं जग के । कूड़े ॥ विधि ऐसे जनि देहु मित्र दुख के सम्पादक । प्रेमी काबि नहिँ रुचें सु कबि जहिँ तन्त्री नादक ॥ ६६६ ॥ | जे बूड़े सबै अङ्ग धारि हिय हरि की प्रीती । कीने भाव पवित्र गहे आरज की रीती ॥ सुकबि धन्य ते लोग धन्य धनि तिन के मन्त्री । जिन के निस दिन रहत राग रस कविता तन्त्री ॥ ६६७ ॥ | जे चूड़े सब अङ्ग धारि रति नन्दनंदनपदः । पुलकि पसीजत सुकवि होत रोमाञ्चित गद्गद ॥ सुनत तासु की कथा ताहि पै वारत सरबस । ताही रङ्ग रमावत' तन्त्रनाद कबितरस ॥ ६६.८ ॥ संपति केस सुदेस नर नवनि दुहुनि इक बानि । । बिभव सतर कुच नीच नर नरम बिभव की हानि ॥५९८॥ + नरम बिभव की हानि भये कुच नीच बखाने । स्मृति बिडारि ना* प्रतिष्ठा = अादर । ' नाच की। बिँके कठोर . + इन दो दो का एक . एक सा सुभाव हैं ! नास्तिक स्मृति को अनादृत कर म्युति = वेद का भौ लङ्घन करता है और दृष्टि औरों की स्मरण शक्ति । को हरती है तथा कान का (बिशालता से). लङ्घन करना चाहती है। कानन = कानों पर वा बन में।