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} विहारीविहार। ..
- तो अनेक अवगुनभरी चाहै याहि वलाय ।।
जो पति सम्पति हू बिना जदुपति राखें जाय ॥ ६८४ ॥ । जाय भले ही सम्पति पति जो जदुपात राखें । को छनभंगुर वैभव क हरि तजि अभिलाखें ।। सुकवि समै पै सव हि काम हरि ही पूरहिँ जौ । क्यों हम भूपतिचारलुटेरुनभीति परहिँ तौ ।। ८०३ ।। दीरघ सॉस न लहिं दुख सुख़ साई हिँ न भूले। दई दई क्यों करतु दई दई सु कुबूल ॥ ६८५ ॥ .. दई दई सु कबूल भूल कर के का सोचत । अपनी चिन्ता अपु. दहत तेहिं क्यों नहिँ मोचत । दुख सुख मिथ्या अहँ बेद को है अनुसासन । सुकवि सत्य तिहिं समझि लेत का दारध साँसन ॥ ८०४ ॥ दियो सो सीस चढ़ाय लै आछी भाँति अयेरि । जापे चाहत सुख लये ताके दुख हिँ न फेरि ॥ ६८६ । ताके दुग्वहिं न फेरि जाहि स चाहत है सुख । हेराफेरी करत कदाचित । ३ विगरि जाय रुख ॥ सुख दुख दो ऊ लहत जगत में जो ई जियो सो । सुकवि
- तु हू धरि सीस दई करि दया दियो से ॥ ८०५ ।।
- नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि ।।
मनो तज्यो तारनविरद वारक वारन तारि ।। ६८७ ।। | घारक वारन तारि तज्यो तारन को चान। अधम उधारन नाम पाइ जिये।
- अति गरबान ।। सुकविलारस अधमन १ डीटि न देत अमी की। ती लखि ६
हो गहें सच तुमरी कीरति नीकी ।। ६०६ ।। • न्यः ॐ इन भई प्रति य के पति राजे न गुनों में भी मुम्प्रति को बसाय चा: । • द; ** ॥ ८ -- इएलान 4 दान = ६ । ९
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