पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/४७

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| भूमिका । • तक है । मोतीराम का भी एक ग्रन्थ इस विषय पर है इसो का अनुबाद लल्ल लाल ने किया था ) इसकी कहानी यों है कि मध्यप्रदेश के ; पुफावती नगर में संवत् ८.१०. मैं एक गोविन्दराव नामक राजा थे । इनके आश्रित माधवानल नामक एक बड़े नृत्य संगीत तथा सर्वशास्त्र के अभिज्ञ गुणी ब्राह्मण थे । माधवानल के रूप यौवन तथा सङ्गोत के चित्ताकर्षक अपूर्व गुण के कारण उस नगर की सैकड़ों स्त्रियां उन पर मोहित हो उनके लिये घरवार छोड़ने पर उतारू हुई । तब अनेक सद्गृहस्थों ने मा .. धवानल को लम्पट कहे राजा के आगे निन्दा की और निर्दोष माधवानले उस नगर से निकाल दिये।

  • गये । तब माधवानल कासवती नगरी के सङ्गीतप्रिय महराज कामसेन से मिले और उनने आदर

। पृर्वक इने आश्रय दिया । महाराज कामसेन के यहां एक परम रूपवती कीमकन्दला नामक वेश्या थी वह माधवानल पर सोहित हो गई और दोनों का परस्पर अपूर्व स्नेह हुआ। तब विचारे माधवानले । उस राज्य से भी निकाल दिये गये । तब उज्जैन के महाराज उस समय के विक्रम के यहां माधवानल

  • गये और उन प्रसन्न किया । विक्रम ने कहा कुछ मांगिये तब उनने यही सांगा कि "कामवती के

• राजा से छीन के कामकन्ट्ला हमें दी जाय” । तब विक्रम ने स्वीकार किया और कामवती, नगरी की । सेना से धोर युद्धपूर्वक कामकन्दला को छीना और माधवानले के अर्पण किया है, अनन्तर विक्रम की

  • आज्ञा ले माधवानल अपनी नगरी पुफावती में आये और बड़े स्थान बनवाये और आनन्द से दिन का

8 टने लगे । ( इन ढहे स्थानों के चिन्ह अभौं तक मिलते हैं ) अगरे के पौरने वाले प्रसिद्ध हैं । लल्ल लाल भी बड़े पैंराक थे । दैवात् एक दिन गङ्गा में कोई से अंगरेज डूब रहा था सो ये निडर हो कर कूद पड़े और उसे निकाल लाये, उसने भी इनकी ज़ौविको के लिये पूरी सहायता दी । और इनको द्रव्यसाहाय्य देकर छापाखाना करवा दिया । ( अगरी | कालिज के हेड्पण्डित श्रीरामेश्वर भट्ट जी से यह छत्तान्त मिला ) | इसी संवत् १८५७ सन् ८०४ में कलकत्ते में कम्पनौ के फोर्ट विलियम कालिज में इनकी नौकरी हुई। दिन दिन इनका सन्मान और नाम बढ़ने लगा। इनके बनाये ग्रन्य छपे और विकने लगे तथा स्यान स्थान में पढ़े पढ़ाये जाने लगे। तब इनका अधिक उत्साह बढ़ा । जिस समय इनने सतसई की टीका बनाई उस समय इनको फोर्ट विलियम कालिज में हिन्दी की अध्यापको करते १८ उन्नीस बर्ष हो चुके थे । इस अवसर में इनने अपनी रचित पोथियों पर सर्वसाधारण की रुचि देख औ कम्पनी के साहाय्य से कुछ धनसामथ्य भी पा संस्कृतप्रेस नामक एक उत्तम छापाखानी खोला ॥ महल्ल पटले । डांगे में तो इनका छापाखाना था और बड़े बाजार में बाबू मोतीचन्द गोपालदास की कोठी में हरि देवदास सेठ के यहां भी इनकी पोथियां विकती थीं ॥ इनने अपने ग्रन्य अपने ही छापखाने में छपवाये उस समय के छप ग्रन्थों को लुगढग नव्वे वरश हुए पर ऐसे उत्तम मोटे बांसी कागज पर छपे हैं कि अभी तक नये जाने पड़ते हैं । | $ ग्रेवर्सन् साहब के लेखानुसार विल्हरो नगर का पुराना नाम एफावती है ॥