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"उर्दूदाँ तबक़े ने बहुत कुछ हाथ पाँव मारे और अपनी सी कोशिश की, लेकिन कुछ सुनवाई न हुई। चार बार यह मसलह लेजिसलेटिव कौंसिल में आया और चारों बार नाकामी हुई। मुल्क की बदनसीवी कि इसे मज़हबी, सयासी और फिरक़:दारी रंग दिया गया और एक मामूली से मुमामिल: ने जो बअसानी तै हो सकता था हमारी शामत आमल से एक नागवार सूरत एख़तयार करली"। (उर्द, जुलाई सन् १९३७ ई॰ पृ॰ ६५४)

उर्दू के भाग्य और देश के दुर्भाग्य से भारत में एक ऐसी संस्था ने जन्म ले लिया जिसका लक्ष्य ही अहिंदी हो गया। उसके अथक प्रयत्न से

"आख़िर ग़ालबन् सन् १९२९ ई॰ में हुकूमत ने एक एलान के ज़रिए से तेरह साल के लिये बतौर तजरब: सिर्फ़ क़िस्मत पटनः की दीवानी अदालतों में उर्दू रस्मख़त के इस्तमाल की इजाज़त दी। हामियान उर्दू इससे मुतमैयन न हुए सौर बराबर मुतालिब: करते रहे कि फ़ौजदारी अदालतों वग़ैरह नोज़ सूब: बिहार के और हिस्सों में भी उर्दू रस्मख़त को एख़्तयारी रस्मख़त करार दिया जाय।

"मई सन् १९३७ ई॰ में हुकूमत ने इन मुतालिबों को किसी क़दर तरमीम के साथ मंजूर कर लिया और यह क़रार पाया कि अर्ज़ियाँ और बयानात तहरीरी वग़ैरह उर्दू हिन्दी दोनों ख़तों में दाखिल किए जायं याने यह कि अगर अर्ज़ी उर्दू में है तो उसकी नक़ल हिंदी में, और अगर हिंदी में हो तो उसकी नक़ल उर्दू में हो। अल्बत्तः संथाल परगनः और क़िस्मत छोटानागपुर को यह रिआयत हासिल न हुई।

"हामियान हिंदी की तरफ़ से इसकी बड़ी मुख़ालिफ़त हुई और हुकूमत