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मेलामलाप से गायब हो जाती है और 'इम्तयाज' की सारी शेखी मारी जाती है। निदान, इस इम्तयाज की रक्षा के लिये 'मुस्तनद' की टकसाल जरूरी क्या अनिवार्य है। इसके बिना किसी इम्तयाजी जबान का जीवित रहना कठिन है। अतः जबान के पहुँचे हुए फकीरों ने 'मुस्तनद' मुसन्निफ़ों की कैद लगा दी; और किस सफाई से 'ठेठ' को 'उर्दू' की बाँदी बना दिया, मानो उर्दू के मुस्तनद मुसन्निफ सदा से 'गँवारी' के कायल रहे हैं, कुछ हिंदीद्रोही फारसी अरबी के भक्त नहीं।

होता भी क्यों नहीं? आखिर थे भी उक्त कमेटी में विराजमान—

(१) डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद (७) मौलाना सैयद सुलैमान नदवी
(२) डाक्टर सच्चिदानन्द सिनहा
(३) डाक्टर जाकिर हुसैन (८) ख्वाजा गुलामुस्सैयदैन
(४) डाक्टर ताराचंद (९) प्रोफेसर नरेंद्र देव
(५) डाक्टर बाबूराम सकसेना[१] (१०) प्रोफेसर बदरीनाथ वर्मा
(६) मौलवी अब्दुल हक (११) राजा राधिका रमण सिंह

अब इन एकादश रुद्रों में क्या कोई ऐसा भी वीर है जो सचमुच दिलेरी के साथ यह दावा करे कि वस्तुतः वह हिंदी का


  1. पुस्तक छपते छपते समाचार मिला कि डा॰ बाबूराम सक्सेना ने उक्त कमेटी से त्यागपत्र दे दिया। इस साहस और न्यायप्रियता के लिये डाक्टर साहब को अनेक बधाइयाँ! —प्र॰