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हितू है और उसका सारा नहीं तो कुछ जीवन अवश्य ही हिंदी-हित में लगा है? रही उर्दू की बात। सो उसके विषय में सावधानी से नोट कर लें कि उसके सभी पेशवा वहीं मौजूद हैं। डाक्टर जाकिर हुसैन जामा-मिल्लिया इसलामिया (देहली) के अध्यक्ष हैं, तो मौलवी अब्दुल हक अंजुमन तरक्की उर्दू (हिन्द) के सर्वस्व। मौलाना सैयद सुलैमान साहब 'दारुल्मुसन्नफ़ीन' (आजमगढ़) के प्राण हैं, तो ख्वाजा गुलामुल्सैयदैन मुसलिम यूनिवर्सिटी (अलीगढ़) के प्रतिनिधि। तात्पर्य यह कि यहाँ उर्दू अपने सभी स्तंभों पर विराजमान हैं और उनका सहारा पा रही है। कहना न होगा कि उक्त संस्था में कायस्थों की प्रधानता है—

"कायस्थ फ़ारसी और उर्दू की तालीम देते हैं। कायस्थ लोग फ़ारसी उर्दू पर उसी तरह क़ुदरत रखते हैं जैसे मुसलमान।" (ख़ुतवात गार्सा-द-तासी, अंजुमन तरक्की उर्दू, हिंद पृ॰ ६०८)

और स्थूणों की, जो देखने में हिंदी के आधार दिखाई दे रहे हैं पर हैं वास्तव में उर्दूभक्त। अब उक्त महानुभावों में कितने ऐसे बच गए हैं जिनके संबंध में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनका संस्कार उनकी शुद्ध भाषादृष्टि का घातक नहीं हैं। याद रहे, सर जार्ज ग्रियर्सन जैसे भाषामर्मज्ञ तथा डाक्टर धीरेंद्र वर्मा (हिं॰ भाषा का इतिहास पृ॰ ३७) ने भी स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वस्तुतः उर्दू पढ़े लिखे मुसलमानों, देशी काश्मीरियों और कायस्थों की जबान हैं। काश्मीरियों को अलग रखिए, पर कृपया भूल न जाइए कि उर्दू पढ़े लिखे कायस्थों की अपनी जबान सी