पृष्ठ:बीजक.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(५६) बीजक कबीरदास । ऐसो अमृत बस्तु साहब समीपई है वा जीवका जननमरण योगहै अर्थात् नहीं है व्यंग्यते या कॅहैं कि जीव महामूढहै । काहेते जो साहब को जानि लेइ तो जन्म मरन छूट जाई काहे ते के रक्षक साहबही है । अथवा जिनको सांच मंत्र माने रहे ते तो सब बांधिगये अमृत वस्तु जो रामनामको साहबमुखअर्थ सो जानतही नहींहै याते जनन मरण न छूटतभयो ॥ ७ ॥ अरु जो प्रथम तुक में लोइ और दूजे तुकमें जीवहिमरन नहाइ ऐसा पाठ होवे तौ यह अर्थ कि, लोइ कही लपट जाइहै प्रकाश तौने ही मैं सब लीन भये, जो कहो लीन भये जीव न रहिगये तो जीव बने काहेते कि, जीवकों मरन नहीं होइहै । वह ब्रह्मका मैं नहीं ? ईति रमैनी दशवीं समाप्तम् । अथ ग्यारहवीं रमैनी । | गुरुमुख । चौपाई ।। आँधरगुष्टिसृष्टिभैवौरी । तीनिलोकमहँलागिठगौरी॥१॥ ब्रह्महिं ठग्यो नागसंहारी । देवन सहित ठग्यो त्रिपुरारी॥२॥ राज ठगौरी विष्णुहि परी। चौदह भुवन केर चौधरी ॥३॥ आदि अंतजेहि काहुनजानीताको डर तुम काहे मानी॥४॥ ऊउतंग तुम जाति पतंगा । यमघर किहे जीव कै संगा॥६॥ नीमकोट जस नीमपियारा । विषको अमृत कहै गैवारा॥६॥ विषके संग कवन गुण होई। किंचित लाभ मूल गोखोई॥७॥ विष अमृतगो एकही सानी। जिन जाना तिनविषकै मानीट कहा भयेनल सुध बेसूझा । विनपरचे जग मूढ़ न बूझा ॥९॥ मतिके हीन कौन गुण कहईलालच लागे आशा रहई॥१०॥