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पृष्ठ:बीजक.djvu/११७

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(६६ ) बीजक कबीरदास । देखतउतपतिलागु न वारा । एकमरैयककरैविचारा॥१०॥ | हे नावौ ! तुम या देखतही कि जो समाधि उतरी तो मनादिक उत्पन्नहोत बारनहीं लगैहै तौ संसार कबै छुट्यो औ येहूं देखतही कि एकैमरैहैं तिनको लायआय गैवगुफा जरिगई है फिर वही गैदगुफा में प्राणचढ़ाय मुक्तिको बिचारौहौ अर्थात् मुक्तिचाहीही सो हे जीवौ तुम सब बिचारौ ! तौ जो समाधि सुख नित्य हो तो तो कैसे मिटिजातो ताते नित्य नहीं है ॥१०॥ भुयेगयेकी काहु न कही। झूठीशलागिजगरही॥ ११ ॥ तुह्मारे गुरुवा लोगमरे मार कहां गये कौन गतिको प्राप्त भये या निकासकी बात तो काहू न कह्यो सो तौ तुम सबनविचारचे धोखा ब्रह्महवेकी जो झूटी आशा ताहीमें तुमसबलागिरहे है। मोको न जानतभये ॥ ११ ॥ साखी ॥ जरतजरतसेवाँचहु, काहे न करहुगोहारि ॥ विषविषयाकैखायहु,रातिदिवसमिलि झारि॥१२॥ . प्रथम तो हेनीवौ ! नानायोनि नरकगर्भ बसके जठराग्निमें जरत जरतसे बचेहु अर्थात् मोसों नानाप्रार्थना करि गर्भबास ते निकसे सो गर्भबास को दुःख तौ तुमको भूलिगया । औ जौन मोसों करार कियेरही सोऊ भूलिगयो बिषरूपा जो बिषयताही को रातिवदिन खायहु अर्थात् झारि बिषयही भोगकीन्हों मेरी शरण को काहे न गोहरायो । जे मेरी शरणको गहिरावै हैं तेईबचे हैं सो हे जीव ! जब मेरी शरणको गोहरावोगे तबहीं बचोगे मेरी या प्रतिज्ञाहै जो कोई मेरी शरणको गोहरावैहै ताको मैं बचायही लेउहौं । गोहारिको अर्थ यहहै कि कोई हमारी रक्षाकरे सो साहब शरणगयेरक्षा करतही हैं तामेंप्रमाण ॥ ( सकुड़े घप्रपन्नाय तवास्मीतिचयाचते । अभयंसर्वभूतेभ्योददाम्येतद्व्रतम्मम ) ॥ १ ॥ इतिबाल्मीकये ॥ १२ ॥ इति तेरहवींरमैनी समाप्तम् । १ नाना प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञान की जै कल्पना साई कल्पना विषय |