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| ( ७० ) बीजक कबीरदास ।। साखी । सांचैकोइ न मानई, झूठासँगजाय ॥ | झूठे झूठा मिलिरहा, अहमक खेहाखाय ॥ १३ ॥ | सांचो मैं सांचे तुम जीव यह मततो कोई नहीं मानैहै झूठानो वहब्रह्मताके संगसब जायेहैं अर्थात् वहीको सर्वस्वमानै है सो झूठावह ब्रह्मऔझूठाज्ञानवाला जोजीव सोमिलिंकै अहमक खेहा खायहै अर्थात् मरयो तब राख खायौ जनम मरण नहीं छूटै है ॥ १३ ॥ इति चौदहवीरमैनी समाप्तम् । अथ पंद्रहवीरमैनी । चपाई । उनई वदरिया परिगै सांझा।अगुवा भूले बनसँड मांझा॥१॥ पियअनतेधनअनतैरहई। चौपरि कामरि माथे गहई ॥२॥ साखी ॥ फुलवा भार न लैसकै, कहै सविन सों रोइ ॥ ज्यों ज्यों भीजै कामरी, त्यों त्यों भारी होइ॥३॥ उँनईवदरियापरिगेसाँझा । अगुवाभलेवनसँडमाँझा ॥ १॥ भ्रमकी बदरी ओनई परिगै साँझा कहे जगत्में अंधियारी है गई साहबको ज्ञानरूपी रबिमूदिगयो न समुझि परत भयो तब बनखंड. जो चरिउ वेद तामें अगुवा जे ब्रह्मादिक सब मुनि ते भूलिगये । कोई भैरव कोई भवानीको कोई गणेशको इत्यादि नानादेवतनकी उपासना करतेभये । औशास्त्रमें नानामत हो तगये कोई कर्मको, कोई ब्रह्मको, कोई प्रकृतिपुरुषको, कोई ईश्वरको, कोईकालको, कोई शब्दको, कोईब्रह्मांड में ज्योतिको, प्रधानमनितभये । औ तिनहूमें एकएक मतनमें अनेक मतहतेभये औमुसलमानहूँके मजहबमं तिहत्तर फिरके होत भये एकमें तो मुक्ति होती है औरनमें नहीं होती । सो जो जौने फिरकेमें