पृष्ठ:बीजक.djvu/१४७

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बीजक कबीरदास । अरु तार जाहै प्रणव ताको हजारन दोनों कुम्भकमें जपत भये अजहूलों, बाहीमें लगे औ यहकहैं कि, कठिन दूरिहै॥३॥कबीरजी कहै जब तानाकोताग टुटिजाइहै तब कोरी भिनै कै जोरिदेइहै ऐसे वह साधक अभ्यासरूप कर्मतै जोरिदेइहै सोकर्म को लाठिनमें बांधिकै सूतो हे जीव कुसूत जाहै वाणी ताको जोलहा जो मनहै सो विनयहै अथवा विद्या अविद्या सूतकुसूत विनय है। अब बस्तु तय्यार होइजायेहै तब जालहाको बिनिबो छूटे है सो धोखा ब्रह्ममें लागि अनादिकालते बिनतई है जब साहबको जानै तब साधनरूप कर्मकरिवो छूटिनाइ हसरूप साहबदेइ जरामरणमिटिजाइ ॥ ४ ॥ इति अट्ठाईसवीं रमैनी समाप्तम् ।। अथ उनतीसवीं रमैनी। चौपाई। वज्रहु ते तृण क्षणमें होई । तृणते वज्रकरै पनि सोई ॥१॥ निःरू जानि परिहरई।कर्मकांधल लालच करई॥२॥ कर्मधर्मबुधिमतिपरिहरिया। झूठानाम सांचलै धरिया॥३॥ रजगति त्रिविधकीनपरकाशाकर्म धर्म बुधिकेर विनाशा ४ रविकेउदय ताराभो छीना । चरखेहर दोनों में लीना ॥५॥ विषकेखाये विष नहिं जावै।गारुड़सोजो मरतजिआवै॥६॥ साखी ॥ अलखजोलागी पलकमों,पलकहिमोंडसिजाय ॥ विषहर मन्त्र न मानही, गारुड़ काह कराय ॥७॥ वज़हुते तृण क्षणमें होई । तृणते वज्रकरै पुनि सोई ॥ १ ॥ निझरूनरूजानिपरिहरई । कर्मकवांधललालचकरई ॥२॥