पृष्ठ:बीजक.djvu/१४६

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रमैनी । (९५) अणव प्रगटभयो है ताते प्रणवप्रतिपाद्य श्रीरामचन्द्रही हैं यह रामनामको साह बमुख अर्थ रामतापिनीमें प्रसिद्ध है ताते हेनीवो! तुमसब रामचन्द्रहीकी नारीही • अविचल कहे न चलायमान निर्विकार सदा एकरस ऐसे भतार कहे स्वामी तुम्हारे श्रीरामचन्द्रही हैं जीव चित्शक्ति माया अष्टांगीआदि अचिव शक्ति ई दूनों शक्ति उनहॉकी हैं याते पति श्रीरामचन्द्रही हैं इहां कबीरजी मायामें सब परे हैं या देखाय साहबको लखायो इहां सब जीवनको या देखायो कवीरही कि, तुम रामक नारीहै और पुरुरकरौग ती मारी जाउगी ॥ ८ ॥ | इति सत्ताईसवीं रमैनी समाप्तम् । अथ अट्ठाईसवीरमैनी । | चौपाई। अस जोलहाकामर्म न जानाजिनजगआइपसारलताना महि अकाश दुइ गाड़बनाई।चन्द्र सूर्य दुइ नरा भराई॥२॥ सहस तार लै पूरिन पूरी । अजहूं विनै कठिनहैदूरी ॥ ३॥ कहहिं कबीर कर्म सो जारी।सूतकुसूत विनै भलकोरी ॥४॥ अस जोलहाकामर्मनजाना । जिनजगआयपसारलताना महिअकाशदुइगाड़बनाई । चंद्र सूर्य दुइनरा भराई २ यहि भांतिको जोलहा जो मनहै जौन जगत्में तानपसारयो हैं कहे बाणी पसारयेहै ताकोमर्म कोई न जानतभयो भतारश्री रामचन्द्रको भूलिगये धोखाब्रह्म नानापति खोजनलग्यो १ महि औ आकाशकहे अधः ऊर्ध्व दुइगड़वा बनावतभये तामें चन्द्र सूर्य इडा पिंगलॉहै तिनकर नराभरावत भये ॥ २ ॥ सहसतारलै पूरिनपूरी । अजहूं विनैकठिनहै दूरी ॥३॥ कहहिंकबीरकर्मसोंजोरी । सूतकुसूत विनैभलकोरी ॥ ४॥