पृष्ठ:बीजक.djvu/१५६

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| रमैनी । (१०५) अथ चौंतीसवीं रमैनी ।। चौपाई। पढ़िपढ़िपंडितकरिचतुराई। निजमुक्तिहिंमोहिंकहहुबुझाई। कहँवसै पुरुषकवनसोगाऊँसोम्वहिंपण्डितसुनावहुनाऊँ२ चारिवेद ब्रह्मा निज ठाना । मुक्तिक मर्म उन्हौं नहिंजाना३ दानपुण्यउनबहुतबखाना। अपनेमरनकिखबरिनजाना एकनाम है अगम अँभीरातहँवाँ अस्थिर दास कबीरा साखी ॥ चींटी जहां न चढ़ि सकै, राई नहिं ठहराय ॥ | आवागमन कि गमनहीं तहँसकलौ जगजाय॥६॥ पीढ़पीड़पडितकारचतुराई । निजमुक्तिहमोहिंकहहुबुझाई १ काँवसैपुरुषकवनसोगाऊँ। सोम्वहिं पंडितसुनावहुनाऊँ २ | हे पण्डितौ ! पढ़ि पाढ़ि के चतुराई करौहौ सो अपनी मुक्तितौ समुझाइ कहौ कहाँ ते तिहारी मुक्तिहोइहै जौने को मुक्ति माने हो सो ब्रह्म धोखा है ॥ १ ॥ अरु वह ब्रह्मलोक प्रकाशहै सो जाकेलोक को प्रकाशैह सो वह पुरुष कहाँ बैसैहै ताका गाउँ कौन है से मोको बतावो अरु वाको नाउँ बताओं वह कौन है ? ॥ २ ॥ चारिवेदब्रह्मानिजठाना । मुक्तिकमर्मउन्होंनहिंजाना ॥३॥ चारवेद को हम कियो है औ हमहीं जानैहैं हमहीं पहैं यह ब्रह्मा मानत भये पै वेदको तात्पर्याथै मुक्तिको मरम वोऊ न जानत भये काहेते कि जो जानते तो रजोगुणी अभिमानी ढुकै जगत्की उत्पत्ति काहेको करते ब्रह्माहूको भ्रम भयो है सो प्रमाण मंगलमें कहिआये हैं तौ पण्डित कहाजानै