पृष्ठ:बीजक.djvu/१५७

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( १०६ ) बीजक कबीरदास । वहीं धोखामें पण्डित लोग लगावतभये कि वह जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है सो तुहीं है अहंब्रह्मास्मि यह भावना करु सो वातो जीवहीको अनुभवहै जीव ब्रह्म कैसे होइगो अरु पण्डित कहा बतावै वाको तौ अनामाकै अरु वाको बस्तु गाउँ कहाँ क्तवें वाक तो देशकाल बस्तुके रहित है हैं सो जाके नाम रूप नहीं है देशकाल बस्तुते रहितइँहै सो वहहै कि नहीं है जो कहो अनु भवमें तौ अवैहै तौत अनुभवै तै जीवहीको है जो यह विचारिबो धोखाई भयो तौ जीवब्रह्म कैसे होईगो ॥ ३ ॥ दानपुण्यउनवहुतबखाना।अपनेमरनकीखबरिनजाना॥४॥ एक नामहैअगमभीरा। तहवाँअस्थिरदासकवीरा ॥६॥ | अरुकर्मकांडवारे दानपुण्य बहुतबखान्याहै पै अपनेमरिबेकी खबर नहीं जान्यौं कि यहकाल बहुतदान पुण्यवारेनको खाइ लियॉहै हमकैसेबचेंगे ।। ४ ।। जौने नाम में लगे जन्म मरणनहीं होइहै औअगमहै कहे जेसंतलोग तेईपार्दै हैं अरु गैंभीरपद है कहेगहिर अर्थ है सो कबीरजी कहै हैं कि तीने नाममें मैं स्थिरहौं ॥ ५ ॥ साखी ॥ चीटी जहां न चढिसकै, राई नहिं ठहराय ॥ आवागमन कि गमनहीं,तहँ सकलौजगजाय ॥६॥ वो ब्रह्म कैसा है कि चीटी जो बाणी है सो नहीं पहुँचै औ राई जो बुद्धि है सो नहीं ठहराय अर्थात् मन बचन के परे है औ आवागमनकी गमनहीं है अर्थात् न वहांते कोई आवै है न यहां से कोई जाय है अर्थात् मिथ्यौह तह सिगरो जग जायेहै ॥ ६ ॥ इति चौंतीसवीं रमैनी समाप्ता ।