पृष्ठ:बीजक.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( ११७ )
रमैनी ।

रमैन । | (११७) शरीर परे रहै हैं औ सूर्य चंद्रमा तेंतीस कोटि देवता ॥ १ ॥ यही संसारसाग- रके भंवरजालमें परे कबहूँ नरकको जाय कबहूँ स्वर्गको जयहैं याहीभांति सब जीव औ सब देवता चाहत तो सुखको हैं कि हमको सुखहोय पै दुःखरूप जो संसारहै ताको संग नहीं छोड़े हैं ॥ २ ॥ दुखकामर्मकाहुनहिंपाया । वहुतभांतिकेजगबौराया ॥३॥ आपुहिवाउरआपुसयानाहृदयावसतरामनहिं जाना ॥४॥ वह दुःखरूप जो संसारहै ताका मर्मकोई न जानतभयो बहुत भांति करिकै जगमसंबजीव बौरायगये॥३॥सो जीवजे ते आपुहीते बाउर होतभये अरु आप- हीते सयान होतभये हृद्यमें बसत ने श्रीरामचन्द्र तिनको न जानतभये अर्थात् ने संसारमें परे हैं ते तौ बाउरई हैं जे आपनेको बहुत ज्ञानी मानै हैं औ सयान माने तेऊ बाउरै हैं अर्थात् जे और२ ईश्वरनके दासभये औ जे आपहीको क्रम मानत भये कि हमही ब्रह्महैं औ आपने आत्मैको मानत भये तिनको साहब को ज्ञान नहीं होय है याहेतुते दुःखही को सुख मनैहै ॥ ४ ॥ साखी ॥ तेई हरितेई ठाकुरा, तेई हरिके दास ॥ जामें भयान यामिनी, भामिनिचली निरास॥५॥ , तेई ने जीव ते अपने को हार मानत भये औ आपनेही को ठाकुर मानत भये कि हमहीं जगत्कर्ता हैं और आपनेही को हरिके दास मानतभये अर्थात् सब आपहीको मानतभये औ यामिनी कहाँ है लगनिया वह वस्तु कराइदेइ है सो पूरागुरु कहाँवै है सो यह जीवको उद्धार कराइदेई है सो जो जो जीव पूरागुरु रामोपासक ना पायो जो समुझाइदेइ कि यह धोखाहै तिन जीवनते भामिनि जो मुक्ति सो निराश द्वैगई कि ई न मुक्ति होगे ॥ ५ ॥ इति इकतालीसवीं रमैनी समाप्त । भय कि हम मानतभये औ यामिनद्धार कराइदेई है तन जीवनते