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पृष्ठ:बीजक.djvu/१७१

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( १२१ )
रमैनी ।

रमैनी। ( १२१) जे जीवात्महींको जानै हैं साहबको नहीं जाने तिनहीं को अंदेशपैरै है काहेते कि सब झूठहाँहै वही सँदेश कहैं हैं जबयमदूत मारनळगे तब वा मारु- दोख उनको अंदेश परैहै कि हमारी रक्षा कौनकर है सो या पापिनकी दशा गरुड़ पुराणमें प्रसिद्धहै ४ साहबके जाननवारे जेसाधु तिनकी संगति छोड़िके भेअसरारकहे कफरई कैरैहैं अपने जीवात्मैको मालिक मानहैं साहबको नहीं जौनेहैं उकहे वे जेदुष्टहैं ते बहै मोटनरकको भारा कहे नरकको है भार नामें ऐसी जोमायाकी मोटरी ताहीको बहै कहे देव ॥ ५ ॥ साखी ॥ गुरुद्रोही औ मनमुखी, नारीपुरुषविचार ॥ | तेनरचौरासीभ्रमहिं, जब लगिशशिदिनका॥६॥ कबीरजी कहैं कि शुकादिक मुनि वेद पुराण साधु औ जे जे साहबके बतावन वारेहैं सो येई गुरुहैं जो कोई इनकी बाणी को मिथ्या मानै है सोई गुरुद्रोही है सो गुरुद्रोही की मनमुखी कहे अपने मनैते नारिनर बिचारिकै जे एक जीवात्महीको मालिकमानै हैं ते चौरासी लक्ष योनिही में जवलगि सूर्यचन्द्र- मा रहै हैं तबलगि वाहीमें परे है ॥ ६ ॥ |. इति तेंतालीसवीं रमैनी समाप्ती । अथ चौवालीसवीं रमैनी । । चौपाई कवतुं न भये संगी साथा । ऐसो जन्म नँवाये हाथा॥ १॥ वहुरिन ऐसो पैहौ थाना। साधुसंगतुमनहिं पहिचाना ॥२॥ अवतौ होइ नरकमें वासा ।निशिदिनपरेलवारके पासा॥ ३॥ साखी ॥ जात सवन कहँ देखिया, कहै कबीर पुका॥॥ चेतवा होहु तौ चेति ले,दिवस परत है धार ॥ ४॥