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पृष्ठ:बीजक.djvu/१७५

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( १२५ )
रमैनी ।

रमैनी । (१२५) मारो तब आँधरलैगयो गिर्दीनंहीं मूसकोस्वायलियो औं सर्प जैसे गहेजुवा कहे छछूदरको धेरहै जो उगिले तो ऑधर लैजाय है खायतो मरिजाय ऐसे सूब जीवनकी जाति है जे कर्मकांडीहैं ते जैसे मछरी केचुवाको जब खायहै तब मुहँमें बंसी चुभिजायेहै वाहीमें फँसिजाय तैसे स्वर्गादिकफल की चाहकर कॅमेक है जनन मरण नहीं छूटैहै काल खायलेइ है औ जे ज्ञानकांडीहैं ते साहवको ज्ञान तो कोच है अपने शास्त्रबलं या कहे हैं कि हम समुझायकै पाखं- हमतवारे ज हैं तिनको अपने मतमें लै आवेंगे या बिचारि तिनके यहांगये सों वे धोखा ब्रह्मरूप उपदेश फूक ऐसा मारयो कि धरे द्वे गये साहब को जौन ज्ञानर है सो भूलिगये तो उनके खाबेको पै वोई उलटिकै खागये औ उपासना कांडी जे हैं ते अपने अपने इष्टको उपासना धरयो सातौ छोड़तहीनहीं बनैहै डरैहै कि देवता खफा न होइ आंधर न करिदेइ जो न छोड़े तो वाही देवताके छोकगये औ फेरिआये जन्ममरण नहीं छूटे है जैसेसांप छछूदरको धरयो परन्तु न उगिढ़त बनै न डीलतबनै ताते कबीरजी कहैं कि साहबको जानो जनन मरण उनीही के छुड़ाये छूटैगो ॥ ७ ॥ इति पैंतालीसवींरमैनी समाप्ती । अथ छियालीसवीं रमैनी। चौपाई। विनसै नाग गरुड़ गलिजाई । विनसै कपटी औसतभाई। | विनसैपापपुण्यजिनकीन्हा।विनसैगुणनिर्गुणजिनचीन्हा२ विनसैअग्निपवनअरुपानी । विनसै सृष्टिजहांल गानी३ विष्णुलोक विनसै छनमाहीं । हो देखा परलयकी छाहीं ॥ साखी ॥ मच्छरूप माया भई, यमरा खेलहि अहेर ।। हरिहर ब्रह्म नऊवरे, सुरनर मुनि केहिकेर ॥॥