पृष्ठ:बीजक.djvu/१७७

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( १२७ )
रमैनी ।

रमैनी।। (१२७) अथ अड़तालीसवीं रमैनी। चौपाई। मानिक पुरहिकबीर वसेरी । मद्दति सुनोशेष तकिकेरी १ ऊजो सुनी जमनपुर धामा । झूसी सुनी पिरनके नामा२ इकइसपर लिखेतेहिठामा । खतमा पर्दै पैगमर नामा ३ सुनिवोलमोहिँरहा न जाई ! देखि मकरवा रहे लोभाई ४ हवीव और नवीके कामा । जहॅलों अमल सो सवेहरामा ६ साखी ।। शेखअकरदी शेख सकरदी, मानहु बचन हमार॥ आदि अंत उत्पति प्रलय, देखो दृष्टि पसा॥६॥ | प्रकट कबीरजी तो यह है कि मानिकपुरमें रह्या तहासे खतकी मछति सुन्यो कि, जिन पीरनके स्थान ॥ १ ॥ जमनपुरमें सुन्यो ते झूसीपारमें आये तहां मैंहूंगयों ॥ २ ॥ इकैस ने पीर तिनकेनामलिखे हैं कि ये सब पैगंब- रैकेर फातियां देइहैं औ कलमा पर्दैहैं ॥ ३ ॥ सो उनके बोलसुनि २ मॉर्प नहीं रहानाय है मकरवा देखि २ ये सब भुलायरहे हैं यह जानिकै तहां मैं जाइकै कह्योकि ॥ ४ ॥ हवीकहे देवतनको खाना अथवा हवाब कहे फारसीमें दोस्तकोकहै हैं औजहां भर नामहै नबीके जे तुम लेतेही औनवीके जहांभर कामहै जे पीरलोग तुमको उपदेश करते हैं सो सब हरामहै काहेत्रे अल्लाह तो मनवचनके परे है ॥ ५ ॥ हे शेख अकरदी हे शेखसकरदी इंमारा कहे जो बचनहै सो सब सच मान आदि अंतमें जो दृष्टि पसारकै देखी तो जहांभर मनबचनमें पदार्थ अवै हैं से सबमाया को पसार है अल्लाह नहीं है सो कवीरजी के चौबिसपरचैसे. खत केलिखे पीछे शिष्य भये सो सब कथा निर्भय ज्ञानमें बिस्तारते हैं ॥ ६ ॥ इति अड़तालीसवीं रमैनी समाप्ती ।