पृष्ठ:बीजक.djvu/१९२

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( १४२ )
बीजक कबीरदास ।

( १४२ ) बीजक कबीरदास । अथ अट्ठावनवी रमनी। चौपाई। तैसुत मानु हमारी सेवा । तो कहँ राज देहुं हो देवा ॥१॥ गम दुर्गम गढ़देहु छुड़ाई । अवरो वात सुनो कछुआई॥२॥ उतपति परलै देउ देखाई। करहुराज्यसुखविलसहुजाई ३ एको वार न जैहै बाँको । वहुरिजन्मनहहोइौताको॥४॥ जायपाप देह सुखधाना । निश्चयवचनकवीरको माना६॥ साखी ॥ साधुसंत तेई जना, जिन माना वचन हमार ॥ आदिअंत उत्पति प्रलय,सव देखा दृष्टिपसार ६ तें सुत मानु हमारी सेवा । तोको राजिदेहुं हो देवा ॥ १ ॥ गम दुर्गम गढ़देहुँ छड़ाई। अवरो बात सुनोकछुआई ॥२॥ वही लोकके गये जन्म मरण छैट है सो कबीरजी साहिं वैकी उक्ति कहै हैं। साहब कहै हैं हेसुत! हे जीव! तू हमारिही सेवा मानु जिन देवतनको तें चाँहै। कि मैं इनको दासह तिन देवतनकी राज्यमैं तोको देहुँगो अर्थात् मेरोपार्षद जब होयगो तब सबके ऊपर है जायगा ते देवता तुम्हारही सेवाकरेंगे ॥ १॥ ॐ गम जो है जगत् दुर्गम नाहै निर्गुण ब्रह्म ये दूनों धोखाने गढ़हैं ते तोको छोड़ाय देउँगो अर्थात् मायाते रहित तोको करिदेउँगो औ वह धोखा ब्रह्म में न लगन देउँग जो जीवनको संसारी कारदेइहैं तब सगुण निर्गुणके परे जो और कछुवात है सो मेरे पार्षद कहै हैं सो तेंहूं मेरे नगीच आइकै सुनैगो ॥ २ ॥ उतपतिपरलैदेउँदेखाई । करहुराज्यसुखविलसहुजाई ॥३॥ अरु उत्पात प्रलय नैनीभांति सो मेरे प्रकाशके भीतर समष्टिनीवते होइ हैं। सोमैं ऊचेते तोको देखाइदेउँगो औनगमेंआयकै जो मोको जानिकै मेरीभाते कहैं सोलुखहै सोतेंहूँमेरीभक्तिकारकै संसाररूपी राज्यमें जाइकै सुखसोंबिलसैगो