रमैनी। | (१८१ ) सुरपतिजाइअहल्याछालिया। सुरगुरुघरणिचंद्रमोहरिया ३ कहकवीरहरिके गुणगाया। कुंतीकर्णकुवारेहिजाया ॥४॥ सुरपतिअहल्याको गमनकरतभयो औ सुरगुरु ने बृहस्पति हैं तिनकी स्त्रीको चन्द्रमा गमन करतभयो ॥ ३ ॥ औ कुन्ती जो हैं सो कुंवारेहिमा कर्णको उत्पन्न कियो है सो कर्म तो या डौलके हैं जो नीचहू नहीं करै है परन्तु कबी- रजी कहै हैं कि हरिके गुण गावतभये ताते इनहूकी सजनहीं में गिनती भई ऐसहुमें हरिरक्षाकैलियो सो हे जीव ! तें केता अपराध किया ॥ ४ ॥ इति इक्यासिवीं रमैनी समाप्ती । अथ बयासिवीं रमैनी। चौपाई ।। सुखकबृक्षयकजक्तउपाया । समुझिनपरीविषयकछुमाया। छौक्षत्री पत्री युग चारी । फल द्वै पापपुण्य अधिकारी २ स्वादअनंतकछुवर्णनजाहीं । कर चरित्र सो तेही माहीं ३ नटवरसाजसाजिया साजी । सो खेलै सो देखै बाजी ४ मोहा बपुरा युक्ति न देखा। शिवशक्तीविरंचिनहिं पेखा ६ साखी ॥ परदेपरदे चलिगया, समुझि परी नहिं बानि ॥ | जो जानै सो वाचिहै, होत सकल की हानि ॥६॥ सुखकवृक्षयकजक्तउपाया। समुझिनपरीबिषयकछुमाया। छौक्षत्रीपत्री युगचारी । फलदै पाप पुण्यअधिकारी ॥२॥ स्वादअनन्तकछुवर्णनजाही। करचरित्रसो तेहीमाही॥३॥ साहबको बिसरायकै सूखा जो वृक्षहै यह संसार माया कहे पावत भयो बिषय बिषरूप माया न समुझिपरी संसारींवैगयो ॥ १॥ शरीर धारणकै छा उरमिनको
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