पृष्ठ:बीजक.djvu/२५

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(२२) कबीरजी की कथा । यह सुनि साधु विप्र समुदाई । लियो कबीरहि को समुहाई ॥ लाखन विष साधु जुर आए । तब कबीर मन माहँ डेराए । अपनो भवनत्यागि दुत भाग्यो । रघुपतिको यह नीक न लाग्यो । धरि कीरको रूप तुरंतै । शत शत मुद्रा दिय प्रति संतै ॥ दोहा-साधुनको सत्कार करि, विदा कियो रघुनाथ ॥ उदर पूर पूजन दियो, सबको गहि गहिहाथ ॥११॥ सब देशन विख्यात भो नामा । कह कबीर अनुकंपा रामा । येहू विधि पंडित जव हारे । तब गोरखको तुरत हँकारे ॥ गोरख आय गयो जब कासी । लाख कबीरको भयो हुलासी ॥ कूप उपर राच पांचहि सूता । बैठ्यो ताहि प्रभाव अकूता ॥ तुरत कबीरहि लिये बोलाई । मोसो करहु विवाद बनाई ।। अन्तरिक्ष तव बैठ कवीरा । देखत गोरख भयो अधीरा ।। तेहि दिन गवन्यो गोरख हारी । आयो भोरहि सिंह सवारी ॥ कह्यो कबीरहिस गहराई । अवै वाद करै मन जाई ॥ तब मृगको रवि सिंह कबीरा । आयो चलो चलावत धीरा ॥ तब गोरख कह सुनहुँ कबीरा । गंगामें डूबै दोउ वीरा ॥ को काको हेरै यहि काला । कूदे गोरख प्रथम उताळा ३३ तब गोरख गूलर है गयऊ । जानि कबीर पकार तेहि लयऊ ।। दोहा-गोरख सुनहुँ कबीर कह, प्रगटो अबहुं तुरंत । - नाती कर भलि डारि हौं, दोषदेहिगेसंत ॥ १२ ॥ तब प्रसन्न गोरख प्रगटाना । तेहि कबीर अस वचन बखाना ॥ मैं अब छिपहुँ हार तुम लेहू । कह गोरख छिपु विनु संदेहू ॥ तब डूय मधि गंग कबीरा । द्वै गो तुरत गंगको नीरा ॥ तब गोरख कर योग प्रभाऊ । जान्या सकल कबीर दुराऊ । दोऊ सिद्ध फेरि प्रगटाने । गोरख वंदन किय हुलसाने । कह्यो सत्य साहब तुम रूपा । संत शिरोमणि शुद्ध अनूपा ॥ एक समय कबीर लै माता । चले जात कोउ देश विख्याता ॥