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(२२४) वीजक कबीरदास । | को सेमरके शाखा वढ़ाये फूल अनूपम वानी । केतिक चाविक लागि रहेहैं चाखत रुवा उड़ानी ।। २ ।। कहा खजूर वड़ाई तेरी फल कोई नहिं पावै ।। ग्रीषम ऋतु जव आय तुलानी छाया काम न आवै ॥ ३॥ अपना चतुर और को सिखवै कामिन कनक यानी । कहै कबीर सुनो हो संतो ! रामचरण रति मानी ॥ ४ ॥ राम तेरी माया बँदि मचावें। गति मति वाकी समुझि परै नहिं सुर नर मुनिहिं नचावै॥१॥ | श्रीकवीरजी कहै हैं कि, हे जीवो ! राममें जो तिहारी माया जो कपट सो दुन्दिमची है । कैसीयाहै कि, जाकी गति मति नहीं समुझिपरै, सुरनर मुनि जे हैं तिनहूं को नचावै । अर्थात् उनहूँको लागिहै । सो साहब को न जनिबो रूपकरण जगत्को आदि मंगलमें कहि आये हैं ॥ १ ॥ का सेमरके शाखा वढ़ये फूल अनूपम वानी ।। केतिक चात्रिक लागि रहेहैं चारवत रुवा उड़ानी ॥ २ ॥ सो हेजी ! तुम इन्द्रमाया को त्यागै साहबको जाना या संसाररूप सेमरको वृक्ष तामें नाना बासना नाना देवतनकी उपासनारूप शाखा बढ़ाये कहाहै । नौनेवृक्षमें अनुपम कहे साहब के जाननेवारे विशेषकर ज्ञानवारे जो नहीं कह्यो ऐसी गुरुवनकी वाणीसोई फूलहै । ताहीते भयो जो धोखा ब्रह्मको ज्ञान सोईफळेहै । तामे केतकी चात्रिकरूप जीवलागि रहेहैं । इहां चात्रिकै कह्यो और पक्षी न कह्यो, सो चात्रिक पियासो रहे है और इनहूँ मुक्तिकी चाह है । पक्षी रस नहीं पाई है इन मुक्ति नहीं पावै है । चाखतमें रुवा उड़े है पक्षीके जीभमें लपटिनाय है, जीभ को रससूखि जाय । इहां वा ज्ञानको जव अनु १ क्या ।