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( २३०) बीजक कबीरदास । को विषय सुख चाहै हैं, आधेमुमुक्षु वैके ईश्वरन के लोकको सुख चाहै हैं, औं ब्रह्ममें लीनद्वैवो चाहै हैं, इनमें पूरीविषय भोगनहीं है, याते आधाकह्या अहं ब्रह्म तूलते नाना शरीर भ्रमरूप सूत निकस्यो एकते बहुत द्वैगयो । जोपट संसारमें विनिगया सो पट जो है संसार सो रत्तीभर न घटैहै न वैद्वैहै घरहाई जोहैं। जीवैकनारीमायासो यहीजीवको कच आपने करमें करिलियाहै अर्थात् यहजीवकी बूंदीगहि लियोहै मायाको भोक्तानीवहै यातेजीवहीकी स्त्री माया है ॥ ३ ॥ नित उठि वेठ खसमस बरवस तापर लागु तिहाई । भीनी पुरिया काम न आवै जोलहा चला रिसाई ॥४॥ खसम जो जीवहै तासो नित उठिउठिके बरबस कहै जबरदस्ती बेठ कहें बेगारि लेयहै सोएकता संसारमें माया वेगारिलेय है दूसरो जोभागनते यह संसारउगे तो आत्मा को तिहाईलगी कहे त्रिकुटीमें धोखा ब्रह्मको ध्यान लगायो । जौनेमें विनिनायहै तौन पुरिया कहावैहै । सो जब भीजिजायौ तव नहीं काम आवै । ऐसे यह संसार पुरिया है नाना पदार्थ ते जो है राग तेहिकरिके जब शरिर भीज्यो तब यह संसारको असार जानिके कहे संसार कुछ कामको न जानिके जोलाहा जोहै जीव सो रिसाय चल्यो, धोखाब्रह्ममें लगतभयो; सोऊ ब्रह्मतो ताहीको अनुभव है वहअनुभव ब्रह्ममें कछु न पावतभयो ॥ ४ ॥ कहै कबीर सुनो हो संतो जिन यह सृष्टि उपाई ।। छाडि पसार राम भजु वौरे भवसागर कठिनाई। ॥ सो कबीरजी कहै हैं कि, जामें तुम लग्यो है सोतो तिहारोई मन को अनुभवहै अरु यह संसारऊको तुम्हारो मनही रच्यो है. सो जिन सृष्टिवाली उपाय कियोंहै तेहि माया ब्रह्मत छोड़ि पसार परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र को भजन करु, काहेते कि, यह भवसानर परमकठिनहै उनहींके भजन किये छूटैगों, औरीभांति न छूटैगो, और तो सव याही में परहैं अथवा यहकठिन भवसागरमें आयके श्रीराम चन्दही को भजन करि मनते छूटैग ॥ ५ ॥ इति पन्द्रहवां शब्द समाप्त ।