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(२४६) बीजक कबीरदास । ऐसे ब्रह्महु में लीनद्वै अठई अवस्थाको प्राप्तभये तब न जीवत्वरह्यो न मूलाज्ञान रह्यो ऐसैहूभये तथापि साहबके बिना जाने मच्छ जो काल है सो खायलेइहै, फिर संसारमें पैरै है तामें प्रमाण । “येऽन्येरविंदाक्षविमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावाद विशुद्धबुद्धयः । आरुह्यकृच्छ्रणपरंपदंततःपतत्यन्त्यधोनादृतयुष्मदंघ्रयः।।इतिभागवते ॥ कबीरजीकोप्रमाण ॥“कोटि करम कटपलमें, जोराचै यक नाम । अनेके जन्म जो पुण्य कैरै, नहीं नाम बिनु धाम ॥ ३ ॥ कहै कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद निरधारै ॥ जो यह पदको गाइ बिचारै आपु तरै अरु तारै॥४॥ सो कबीरजी कहें कि, हेसंतो ! जो यह पदको निराधारै कहे सारासार बिचारकरै औं जौन ब्रह्मपद कहिआये तौनेको गाइ बिचारै कहे माया बिचौरै सो आपु तरे है और आनहूको ताँरै है अर्थात् साहबको बा जानै औ औरहूको जनाइ देइ ॥ ४ ॥ इति उन्नीसवां शब्द समाप्त । अथ बीसवां शब्द ॥२०॥ कोइ राम रसिकरस पियहुगे । पियहुगे सुख-जिय हुगे ॥१॥ फल अमृतै बीज नहि बोकला शुकपक्षी रस खाई। चुवै न बुन्द अंग नहिं भीजै दास मँवर सँगलाई ॥२॥ निगमरसाल चारि फल लागे तामें तीनि समाई ।। एक है दूरि चहै सब कोई यतन यतन कोइ पाई ॥३॥ गयउ वसंत ग्रीष्म ऋतु आई बहुरि न तरुवर आवै। कहै कबीर स्वामी सुख सागर राम मगन वै पावै ॥४॥