पृष्ठ:बीजक.djvu/३००

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(२५० ) बीजक कबीरदास । कह कवीर यह कलि है खोटी ।जोह करवा निकसल टोटीद कलिनाम झगड़ाको है सो कबीरजी के हैं यह माया ब्रह्मका झगड़ा बहुतखोटहै अथवा यह कलिकाल अतिखोटहै । जोवस्तु करवगैरहै है सोईटोटीतेनिकसैहै तैसेजोकर्म यहजीवकरै है सोई दुःखसुख वह जन्मभोगकैरै है अरु नाना देवतनकी उपासनाअब करैहै ताहीकी वासना बनीरहै है तेहिते पुनिवाई देवतन में लागै है अरु जो ब्रह्मबिचार अबकरैहै सोई ब्रह्मविचार पुनिजन्मकै करैहै। अर्थात् बिना परमपरपुरुष श्रीरामचन्द्रके जाने जन्ममरण नहीं छूटेंहै जोबासना अंतःकरणमें बनी रहै है सोई पुनि होय है ॥ ५ ॥ | इति इक्कीसवां शब्द समाप्त । अथ बाईसवां शब्द ॥ २२ ॥ | अवधू छोड़ो मन विस्तारा। सो पद गहहु जाहिते सद्गति परब्रह्मते न्यारा ॥१॥ नहीं महादेव नहीं महम्मद हरि हजरत तव नाहीं।। आदम ब्रह्म नहीं तव होते नहीं धूप नहिं छाहीं ॥ २ ॥ असी सहस पैगंबर नाहीं सहस अठासी मूनी ।। चन्द्र सूर्य तारागण नाहीं मच्छ कच्छ नाह दूनी ॥३॥ वेद किताब स्मृति नहिं संयम नहीं यम न पारसाही । वांगनेवाज कलिमा नहिं होते रामो नहीं खोदाही ॥४॥ आदि अंत मन मध्य न होते आतश पवन न पानी । लखचौरासी जीवजन्तु नहीं साखी शब्द न वानी ॥६॥ कहै कबीर सुनो हो अबधू आगे करहु विचारा। पूरणब्रह्म कहाँते प्रकटे किरतमकिनउपचारा॥६॥