पृष्ठ:बीजक.djvu/३३२

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( २८२) बीजक कबीरदास । कायाके बीर जीव ते हार जे परम पुरुष श्रीरामचन्द्रहैं सबके कलेश इरनवारे तिनको ठग ने गुरुवालोग हैं तिनके ठगतमें कहे रक्षकको छपायदतमें जीडरै है कि, हमारी रक्षा अब कौनं करैगो, वह ब्रह्म तो धोखई है वा तो गुरुबनहींकी रक्षा नहीं किया औ तेई मालिक होतो तौ मायाके बश कैसे होते औ यम कैसे धरि लैजाते ॥ ४ ॥ इति सैंतीसवां शब्द समाप्त है। अथ अड़तीसव शब्द ॥ ३८॥ हरि विनु भर्म विगुर बिन गन्दा। जहँ जहँ गये अपन पौ खोये तेहि फन्दे वहु फेदा॥१॥ योगी कहै योग है नीको द्वितिया और न भाई। चुण्डित मुण्डित मौन जटा धरि तिनहुँ कहां सिधिपाई ज्ञानी गुणी शूर कवि दाता ये जो कहहिं वड़ हमहीं।। जहँसे उपजे तहँहि समाने छूटिगये सब तबहीं ॥३॥ वायें दहिने तजो विकारै निजुकै हरि पद गहिया ।। कह कबीर गूंगे गुर खाया पूछे सों का कहिया ।। ४ ।। या पदमें में जीवनको गुरुवा लोगनको उपदेश लग्यो है तिन को है हैं । औ गुरुवा लोगनको कहैं हैं । हरि विनु भूर्म विगुर बिन गंदा । जहँ जहँ गये अपन पौ खोये तेहि फंदे बहु फेदा ॥ १ ॥ मलिन बुद्धि जाकी होइ है ताको गंदा केहै हैं सो गंदा जो यह जीवहै सो बिना जाने भमते बिगरि जात भयो तात चिन्मात्र हार को अंशने यहजीव । ताकी नीचे बुद्धि होइगई । जहांगा तहां तहां अपनप कहे मैं सांचे साहबको हैं। यहज्ञान खोयकै तौने फन्दामें परिकै तने मतमें लगिकै बहुत फन्द जे चौरासी लाख योनि हैं तिनमें भटकत भये ॥ १।। ।