पृष्ठ:बीजक.djvu/३५

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                 (३२) शेष दोनोशब्द ।
                शब्द एकसौ चौदह ॥ ११४॥
सार शब्द से बांचि हो मानहु एतवारा हो।
आदि पुरुष यक बृक्ष है निरंजन डारा हो ।।
त्रिदेवा शाखा भये पत्ती संसारा हो ।। 
ब्रह्मा वेद सही किये शिव योग पसारा हो ।। 
विष्णु माया उत्पति किया उरला व्यवहार हो ।।
तीन लोक दशहूं दिशा यम रोकिन द्वारा हो।।
कीर है सब जयरा लिय विषका चारा हो ।।
ज्योति स्वरूप हाकिमह जिन अमल पसार हो॥
कर्मकी बंसी लायके पकरयो जग सारङ्ग हो ।।
अमल मिटाऊ तासुका पठॐ भव पार हो ।। 
कह कबीर निर्भय करों परखो टकसारा हो ।
      शब्द एक सौ पन्द्रह ॥ ११५॥
सन्तौ ऐसी भूल जगमाहीं जाते जिव मिथ्या में जाहीं॥ 
पहिले भूले ब्रह्म अखण्डित झाई आपुहि माना ।। 
झाई मानत इच्छा कीन्हा इच्छाले अभिमानी ॥
अभिमानी करता है बैठे नाना पंथ चलाया।। 
वही भूल में सब जग भूले भूलक मर्म नहिं पाया ।।
लख चौरासी भूल ते कहिये भूलहि जग विटमाया।। 
जो है सनातन सो भूला अब सोइ भूलहि खाय ।। 
भूल मिटै गुरु मिलै पारखी पारख देइ लखाई।। 
कहाहि कबीर भूल की औषध पारख सब की भाई ॥ ११९॥