पृष्ठ:बीजक.djvu/३५२

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३ (३०२ ) बीजक कबीरदास । हे पंडित ! यह संसाररूपी वृक्षको जो हैं बूझि राखे हैं कहे मानि राखे है। सो हैं बुझतौ जितने विचार होइहैं तिनका यह मिथ्याही है । हरिकेचिद्ञचिद् रूपसे सत्यहै। यह संसार वृक्ष आधा पुरुष है आधा प्रकृति है अर्थात् चित् पुरुष जीव औ अचित् मायादिक इनहीते संपूर्ण जगदहै ॥ १ ॥ पुनि कैसोहै संसार रूपी विरवा याको स्वर्गशीश कहे ब्रह्मांडको जो खपरा है सो शीश है अरु याकी जर पातालमें गई है ॥ २ ॥ वारह पखुरी चौविस पाताघिन वरोह लागी चहुँचाता ॥३॥ फलै नफुलै वाकि है वानीन दिवस विकार चुव पानी॥४॥ औ बारह महीना ने हैं ते बारे पंखुरी हैं अर्थात् काल औ चौबिस तत्त्व वाके चौबिस पातहैं औ धन कहे नाना कर्मनकी वासना तेई घन बरोह चारों ओर लगी हैं ॥ ३ ॥ या संसाररूपी वृक्ष साहबको ज्ञान रूप फल नहीं फूलै औ साहबको भक्तिरूप फल नहीं लगे हैं या संसारके बाहर भयेते होयहै औ राति दिन बिकाररूप पानी चुबै है ॥ ४ ॥ कहकवीरकछुअछलोनजहियाहिरिविरवाप्रतिपालततहिया ६ । सो कबीरजी कहै हैं कि, जहां हर परम पुरुष श्रीरामचन्द्र जाके अंतःकर णमें भागवत धर्म रूपी बिरवन बाग प्रतिपालै हैं तिनको यह संसाररूपी बिरवा अच्छी नहीं है । व्यंग यह है कि,माली जो होइहै सो कांटा वाला पेड़ निष्काम अलग कै देइहै इहां हार संसार रूपी बिरवा अलग कै देइ है भागवत धर्मरूप बिरवा श्रीकबीरजी रेखता में कह्यो । “धर्मकी बाग फुलवारि फूली रही शील संतोष बहुतक सोहाई ! भक्तिका फूल कोउ संत माथे धरे ज्ञान मत भेद सतगुरु लखाई । विवेक बिञ्चार सोइ बाग देखन चले प्रेम फल पाइ टोरै चखाई । पराहै स्वाद जब और भावै नहीं तंजैगा माणकी बहवाई ॥ ५ ॥ इति पचासवां शब्द समाप्त ।