पृष्ठ:बीजक.djvu/३५१

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शब्द् । निन संक्रांति है । औं नित नव ग्रह पांति नो है दुवार जामें ऐसो जो है ग्रह शरीर तने की पांति वैठे है कहे इतना योग साधे हैं तऊ शरीर धारण कारबों नहीं छूटै है ॥ ४ ॥ में तोहि पूछौं पंडित जना । हृदया ग्रहण लागु क्यहि रखना कह कबीर इतनौ नहिं जानाकौन शब्द गुरू लागा कान ६॥ हे पंडित ! तुमसों हम पूछे हैं कि, जब समाधि उतरि अवै है तब फिर माया दुमका ग्रहण करिलेइ है औ निर्वाण पद कहतहीहौ । सो निर्वाण पद ने जाते तैः कैसे उलट आवते है कैसे नाना शरीर पावते सो देखतेही बुझते नहींही,यह अज्ञानरूपी राहुते तुम्हारे ज्ञानरूपी चन्द्रमाको कब ग्रहणकयो॥५॥ श्रीकबीरज कॅहै हैं कि, इतनी नहीं जानतेहौ कि शरीरके साधन यह ज्ञान कियते शरीर मिलैगो कि छूटेगो अर्थात् शरीर साधन कियेते शरीरही मिलैगो तेरे कानमें लागिकै गुरुवालोग कौनसो शब्दको उपदेशकियो है जाते परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको भूलि गेय ।। ६ ।। इति उनचासवां शब्द समाप्त । अथ पचासवीं शव्द ॥ ५० ॥ बुझबुझ पंडितविरवा न होई।अधवल पुरुष अधा बस जोई। वरवा एक सकल संसालास्वर्ग शीश जर गयल पताला२ | वाह पश्चुरी चौविस पाता। घन बरोह लागी चहुँ घाता३ फलै न फुले वाकिदै वानी। रैनिदिवस विकार चुव पानी॥४॥ कहकवीरकछुअछलोनजहियाोहरिबिरवाप्रतिपालततहिया ६ बुझवुझपंडितविरवानहोई । अधवसपुरुषअधावसजोई॥१॥ बिरवा एक सकल संसाला।स्वर्ग शीश जर गयलपताला ३