पृष्ठ:बीजक.djvu/३५६

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बीजक कबीरदास । वन हैं ते लाय देइ हैं अर्थात् गुरुवनकी बाणी सुनि सुन्निकै शिष्यलोग जब और और जीवनको उपदेश कियो तब उनके सबको साहबको बिवेकजरिजरिगयो औरेऔरे में लागगये विवेक करिकै साहबको ज्ञानजो हैबेको रहै सो न भयो तब संसार समुद्र में मच्छ जोहै काल सो अहेर खेलै है अर्थात् जीवनको खाइ है ॥ ४ ॥ कह कबीर यह अद्भुत ज्ञाना को यहि ज्ञानहि बूझै । बिनु पंखे उड़ जाहि अकाशै जीवहि मरण न सूझे ॥६॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि, यह संसार अद्भुत औ ब्रह्म अद्भुत है इन दूनोंको ज्ञान जिनको है कि, ये धोखा है ऐसो को है ? अर्थात् कोई नहीं है परन्तु जोकोई बिरला बुझनवारो होइ औ मन माया है। दोनों धोखा हैं येई त उडै हैं नाना पदार्थनको स्मरण होइहै नाना योनि पावैहै संसारमें तिनको छोड़ एक परमपुरुष श्रीरामचन्द्रही को हैरहै तौ ब्रह्म जो है आकाश ताते उड़ कहे निकसिकै साहबके यहां पहुंच जाइ जो कहो बिना पखना कैसे उड़िजाय । सो यहां उपासना दुइप्रकारकी हैं एक बांदर कैसो बच्चा भजन करैहै। कि, बांद्रको बच्चा अपनी माताको आपही धरे रहै है सो यहजीव नाना प्रका र शास्त्रादिकनते बिचार कारकै असांच मत खंडन करिकै आपही अपने साहबको धरे रहै है भ्रम में नहीं परै है । औ दूसरी उपासना बिलारीके बच्चाकीसहै बिलारीको बच्चा और सबकी आशा तोरे माताकी आशा किये है। सो वह विलारी अपने बच्चाको जहां सुपास देखै है तहां आपही उठाइ लैजाइहै। तैसे यह जीव वेद शास्त्रको छोड़िके न काहूके मतके खंडन करिबेकी सामथ्य है। ने अपने मतके मंडन करिबेकी सामथ्र्येहै साहबको जानै है कि, मैं साहब का हैं दूसरो मत सुनतही नहीं है सो जब सब पक्ष को छोड़िकै साहब को वैरह्यो, तब याको साहवही हंसस्वरूप दैकै अपने लोकको उठाइ लैजाइहै ॥५॥ इति बावनवां शब्द समाप्त ।